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मौत को साधे शब्द / केदारनाथ अग्रवाल
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मौत को साधे शब्द
अंतरंग से बाहर
यथार्थ की दुनिया में
आए, अकुलाए
सर्वत्र टकराए।
भोगते-भोगते
देश-काल की विसंगतियाँ;
न सच तक पहुँच पाए,
न असत्य को उखाड़ पाए;
न वर पाए
वरेण्य मानवीय बोध;
न कर पाए
अपना या दूसरों का शोध-
दहन-दाह के प्रतिकूल-
आत्म-प्रसार के अनुकूल;
बस,
झाँकते शब्द झाँकते रहे-
बुदबुदाते शब्द बुदबुदाते रहे-
काल से कवलित होते-होते
दृश्य से अदृश्य में
विगलित होते शब्द
होते रहे अशब्द।
रचनाकाल: ०३-११-१९८३ / २०-१२-१९९०