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चट्टानें / नरेश सक्सेना

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चटानें उड़ रही हैं
बारूद के धुओं और धमाकों के साथ

चट्टानों के कानों में भी उड़ती-उड़ती
पड़ी तो थी अपने उड़ाए जाने की बात
वे बड़ी ख़ुश थीं
क्योंकि हिन्दी भाषा के बारे में
वे कुछ नहीं जानती थीं

उन्हें लगता था
उन्हें उड़ाने के लिए वे लोग
पँख लेकर आएँगे ।