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बाजत अवध गहागहे अनन्द-बधाए / तुलसीदास

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राग जैतश्री
 
बाजत अवध गहागहे अनन्द-बधाए |
नामकरन रघुबरनिके नृप सुदिन सोधाए ||
पाय रजायसु रायको ऋषिराज बोलाए |
सिष्य-सचिव-सेवक-सखा सादर सिर नाए ||
साधु सुमति समरथ सबै सानन्द सिखाए |
जल, दल, फल, मनि-मूलिका, कुलि काज लिखाए ||
गनप-गौरि-हर पूजिकै गोवृन्द दुहाए |
घर-घर मुद मङ्गल महा गुन-गान सुहाए ||
तुरत मुदित जहँ तहँ चले मनके भए भाए |
सुरपति-सासनु घन मनो मारुत मिलि धाए ||
गृह, आँगन, चौहट, गली, बाजार बनाए |
कलस, चँवर, तोरन, धुजा, सुबितान तनाए ||
चित्र चारु चौकैं रचीं, लिखि नाम जनाए |
भरि-भरि सरवर-बापिका अरगजा सनाए ||
नर-नारिन्ह पल चारिमें सब साज सजाए |
दसरथ-पुर छबि आपनी सुरनगर लजाए ||
बिबुध बिमान बनाइकै आनन्दित आए |
हरषि सुमन बरसन लगे, गए धन जनु पाए ||
बरे बिप्र चहुँ बेदके, रबिकुल-गुर ग्यानी |
आपु बसिष्ठ अथरबणी, महिमा जग जानी ||
लोक-रीति बिधि बेदकी करि कह्यो सुबानी-
"सिसु-समेत बेगि बोलिए कौसल्या रानी ||
सुनत सुआसिनि लै चलीं गावत बड़भागीं |
उमा-रमा, सारद-सची लखि सुनि अनुरागीं ||
निज-निज रुचि बेष बिरचिकै हिलि-मिलि सङ्ग लागीं |
तेहि अवसर तिहु लोककी सुदसा जनु जागीं ||
चारु चौक बैठत भई भूप-भामिनी सोहैं |
गोद मोद-मूरति, लिए, सुकृती जन जोहैं ||
सुख-सुखमा, कौतुक कला देखि-सुनि मुनि मोहैं |
सो समाज कहैं बरनिकै, ऐसे कबि को हैं ? ||
लगे पढ़न रच्छा-ऋचा ऋषिराज बिराजे |
गगन सुमन-झरि, जय-जय, बहु बाजन बाजे ||
भए अमङ्गल लङ्कमें, सङ्क-सङ्कट गाजे |
भुवन चारिदसके बड़े दुख-दारिद भाजे ||
बाल बिलोकि अथरबणी हँसि हरहि जनायो |
सुभको सुभ, मोद मोदको, राम नाम सुनायो ||
आलबाल कल कौसिला, दल बरन सोहायो |
कन्द सकल आनन्दको जनु अंकुर आयो ||
जोहि, जानि, जपि जोरिकै करपुट सिर राखे |
"जय जय जय करुनानिधे! सादर सुर भाषे ||
"सत्यसन्ध ! साँचे सदा जे आखर आषे |
प्रनतपाल ! पाए सही, जे फल अभिलाषे ||
भूमिदेव देव देखिकै नरदेव सुखारी |
बोलि सचिव सेवक सखा पटधारि भँडारी ||
देहु जाहि जोइ चाहिए सनमानि सँभारी |
लगे देन हिय हरषिकै हेरि-हेरि हँकारी ||
राम-निछावरि लेनको हठि होत भिखारी |
बहुरि देत तेहि देखिए मानहुँ धनधारी ||
भरत लषन रिपुदवनहूँ धरे नाम बिचारी |
फलदायक फल चारिके दसरथ-सुत चारी ||
भए भूप बालकनिके नाम निरुपम नीके |
सबै सोच-सङ्कट मिटे तबतें पुर-तीके ||
सुफल मनोरथ बिधि किए सब बिधि सबहीके |
अब होइहै गाए सुने सबके तुलसीके ||