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एक कम / विष्णु खरे

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1947 के बाद से

इतने लोगों ने इतने तरीकों से

आत्‍मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है

कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है

पच्‍चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए

तो जान लेता हूँ

मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्‍चा खड़ा है

मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी

या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और

एक मामूली धोखेबाज़

लेकिन पूरी तरह तुम्‍हारे संकोच लज्‍जा परेशानी

या गुस्‍से पर आश्रित

तुम्‍हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्‍ज और निराकांक्षी

मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से

मैं तुम्‍हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्‍सेदार नहीं

मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम

कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो