भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर मुझे नरगिसी आँखों की महक पाने दो / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:30, 2 जुलाई 2011 का अवतरण
फिर मुझे नरगिसी आँखों की महक पाने दो
फिर बुलाते हैं छलकते हुए पैमाने दो
क्या पता, फिर कभी हम मिल भी सकेंगे कि नहीं
आज की रात तो आँखों में गुज़र जाने दो
और भी हैं कई मज़बूरियाँ, सँभल ऐ दिल!
क्या हुआ मिल गयीं नज़रें भी जो अनजाने दो!
जब्त होता नहीं माँझी अब उठा लो लंगर
नाव को फिर किसी तूफ़ान से टकराने दो
रंग उनका भी बदलता नज़र आयेगा, गुलाब!
थोड़ा इन प्यार की आहों में असर आने दो