भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लौटे बचपन! / अवनीश सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Abnish (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:20, 12 अगस्त 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <Poem> कभी अयुध्य…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कभी अयुध्या मन में बसती
कभी अयुध्या के बाहर मन
चिंताओं के मकड़जाल से
मुक्त डोलता कोमल जीवन

बचपन के तो चंद इशारे
माँ समझे या समझे बापू
जिनकी ओली ही लगती है
सबसे ऊंचा सुन्दर टापू

क्या सोना तब हीरा- मोती
क्या माने रखता सिंहासन!

कभी चाँद - तारों की बातें
कभी धूप के मोती चुनना
कभी पकड़ना अपनी छाया
अपने मन की आहट सुनना

छोटे-छोटे खेलों में भी
हो जाती थी मीठे अनबन!

चढी जवानी देखे सपने
बोझिल झुके हुए हैं कंधे
धुक-धुक-धुक-धुक जी करता है
कितने फंदे- कितने धंधे!

मन ही मन बस यह ही चाहूँ
लौटे फिर मुझमें बचपन!