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रचना-प्रक्रिया / भारत यायावर

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मन के सिरहाने

सजा कर रखी हैं कितनी किताबें !

क्मरे में एक पतली मोमबत्ती

पीले प्रकाश में

पिघल रही है

धीरे-धीरे

मेरे चेहरे पर

रोशनी की तिरछी लकीरें

मेरी आँखें जल रही हैं

तीव्र आवेग में


इसी समय

प्रवेश करती है--

एक काली छाया

खुले हुए बाल

धरती में लोट-पोट

उसका चेहरा नहीं दीखता

मैं उठ कर बैठ जाता हूँ

आँखों पर ज़ोर देकर देखता हूँ

कौन है वह?

मुझे जीवनानंद दास की ऎक कविता

याद आती है और

मन के सिरहाने रखी

पुस्तकों के पन्ने खुल कर

फड़फड़ाने लगते हैं


एक गहरी खामोशी है

बाहर और भीतर

एक भी शब्द

कहीं झंकृत नहीं होता

एक भी ध्वनि