निश्तर ख़ानक़ाही / परिचय
{{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही
(क) जन्मस्थान : हिंदी साहित्य क्षेत्र में प्रख्यात ग़ज़लकार, व्यंग्यकार, कहानीकार, नाटककार और स्वतंत्र लेखक निश्तर ख़ानक़ाही का जन्म भागीरथी के तट पर स्थित बिजनौर जनपद के ग्राम जहानाबाद में फरवरी सन् 1930 को सैयद मौहम्मद हुसैन के परिवार में हुआ। अपने जन्म के संबंध में निश्तर ख़ानक़ाही ने बताया- 'कोई रिकार्ड नहीं है, लेकिन मौखिक रूप में जो कुछ मुझे बताया गया है, उसके अनुसार 1930 के निकलते जाड़ों में किसी दिन मेरा जन्म हुआ था, जहानाबाद नाम के गाँव में, जहाँ मेरे वालिद सैयद मौहम्मद हुसैन की छोटी-सी जमींदारी थी।' (1)
(ख) पैतृक परिचय : निश्तर ख़ानक़ाही के पिता जहानाबाद के जाने-माने जमींदार थे। उनके पिताश्री को लोग 'पीर जी' के नाम से पुकारते थे। वे अपने क्षेत्र के सम्मानित व्यक्ति थे।(2) उनकी माताश्री चाँदपुर (बिजनौर) के निकट स्थित गाँव मुढाल के जमींदार परिवार की बेटी थीं। निश्तर साहब ने बचपन में एक औसत जमींदार परिवार की खुशहाली देखी और उसमें वे पले-बढ़े हुए हैं। आपके पिताश्री अत्यंत कठोर स्वभाव के व्यक्ति थे। इस कारण आपका लगाव माँ से अधिक था। आपकी माँ एक विदुषी महिला थीं। उन्होंने बचपन में ही आपको फारसी के महान शायरों- हाफ़िज शीराजी, सादी और नज़ीरा का काव्य कंठस्थ करा दिया था। वह स्वयं भी शायरी करती थीं। 'जनाब निश्तर ख़ानक़ाही की माँ फ़ारसी की विदुषी थीं। उन्होंने यूनानी चिकित्सा-शास्त्र का अध्ययन फ़ारसी माध्यम से किया और फ़ारसी भाषा में ही शायरी भी की। उनका एक ग़ज़ल-संग्रह भी था, जो निश्तर साहब के दुर्लभ पुस्तकालय के साथ ही नष्ट हो गया।' (3) इस प्रकार निश्तर साहब पर अपनी माताश्री का पूर्ण प्रभाव पड़ा। संभवत: बचपन में अपनी माँ से मिले ये संस्कार ही थे कि वे एक सफल शायर बन सके।
(ग) शिक्षा : निश्तर ख़ानक़ाही की शिक्षा घर से आरंभ हुई। अपनी उम्र के आठवें वर्ष में वे गाँव के निकटवर्ती शहर बिजनौर में आ गए और यहाँ पर एक अँग्रेजी विद्यालय में प्रवेश लेकर पढ़ने लगे। इसी उम्र से उन्होंने उर्दू व फ़ारसी का भी अध्ययन किया। इन भाषाओं के साहित्य की ओर उनका विशेष लगाव था। इसी कारण उन्होंने उत्कृष्ट शायरी की अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया। अपनी अध्ययनशील प्रवृत्ति के संबंध में निश्तर जी कहते हैं- 'यदि आप झूठ न मानें तो बताऊँ कि उस अवस्था में लाखों की संख्या में उर्दू असआर मुझे याद थे। शायर हुए बिना ही स्कूल के टीचर मुझे ग़ालिब कहकर पुकारने लगे थे।' (4) निश्तर जी बचपन से ही अध्ययनशील रहे। उनका मन खेल की अपेक्षा पढ़ने में अधिक रमता था। उनके अभिभावक जब उन्हें खेल की ओर प्रवृत्त करते तो इसे वे बड़े भारी मन से ही स्वीकारते। निश्तर जी बताते हैं कि 'जब भी घरवाले खेलने के लिए विवश करते तो मेरी मजबूरी ही थी कि मुझे जाना पड़ता था।' साहित्य और साहित्य से संबंधित जितनी पुस्तकें मिलती रहीं, वे उन्हें दिन-रात पढ़ते रहे। एक समय वह भी आया कि उनकी माँ तथा निकट संबंधियों को यह आशंका होने लगी कि वे पढ़ते-पढ़ते अपना स्वास्थ्य न खो बैठें। इसलिए उन्हें शाम को दो घंटे खेलने के लिए विवश किया गया। किंतु पहली बार मुहल्ले के लडक़ों की एक टीम में जब मुझे कबड्डी खेलने के लिए भेजा गया तो पहली ही पकड़ में वे अपना कंधा तुड़वा बैठे। सब लोग इस बात से परेशान हुए लेकिन वे संतुष्ट थे कि अब कुछ समय लेटे-लेटे पढ़ने का अवसर मिलेगा।' (5) बिजनौर में रहकर निश्तर जी ने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। मन में कुछ कर गुजरने की उमंग थी। इसी भावना के वशीभूत वे अपनी उम्र के सत्रह बसंत पार करने के उपरांत दिल्ली चले गए। कुछ समय तक वहाँ रहे, किंतु दिल्ली में मनचाहा और उपयुक्त काम न मिलने के कारण वापस बिजनौर आकर अपनी आगे की पढ़ाई में लग गए और इंटर की शिक्षा पूरी की।' (6) यूँ तो निश्तर जी ने विद्यालयी शिक्षा इंटर तक ही प्राप्त की है, किंतु साहित्यकार का जीवन तो सदैव अध्ययन-लेखन में ही व्यतीत होता है। वह नित नया पढ़ता है, नित नया सीखता है और अपने अनुभवों के अनुसार नित नई रचना करता है। उसकी शिक्षा तो अबाध गति से चलने वाली नदी के समान है। (घ) साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश : ग़ज़लकार ख़ानक़ाही जी ने साहित्य-क्षेत्र में अपनी बाल्यावस्था से ही क़दम रख दिए थे। लिखने की प्रतिभा उनमें ईश्वर-प्रदत्त थी। उनकी माताश्री स्वयं एक अच्छी ग़ज़लकारा थीं। उनका प्रभाव निश्तर जी पर पड़ना स्वाभाविक था। वे अपनी उम्र के प्रथम दशक से ही ग़ज़ल-लेखन में जुट गए थे। इस संबंध में स्वयं निश्तर जी लिखते हैं- 'कोई आठ या नौ वर्ष की आयु से कविता लिखना आरंभ कर दिया था और बारह-तेरह वर्ष की उम्र को पहुँचते-पहुँचते क़लम काफ़ी पुख़्तगी पा गई थी। आमतौर पर रात के समय जब सब लोग सो जाते, मैं ध्यानमग्न हो जाता। पूरब में प्रभात का उजाला उदय होने लगता किंतु मुझे एहसास ही न होता। रातभर में सौ-सौ शेर कह डालता और विशेषता यह थी कि सिर्फ़ गिनती के सहारे पर ये सारे शेर सुबह को काग़ज़ पर उतार लेता। उन दिनों मेरी याददाश्त ग़ज़ब की थी।' (7) प्रख्यात ग़ज़लकार, एवं समीक्षक डा. गिरिराजशरण अग्रवाल के पूछने पर वे कहते हैं- 'शायरी पढ़ने का चस्का तो काफ़ी पहले लग गया था, किंतु अभी तक शायरी की न थी। एक दिन अपने मकान की छत पर पतंग उड़ा रहा था। मेरा एक संबंधी युवक भी साथ में था। पतंग उड़ाते-उड़ाते कहने लगा कि चलो आज ग़ज़ल लिखते हैं। हम लोगों ने पतंग उड़ाना छोड़ा और ग़ज़ल लिखनी शुरू की। दस मिनट में मैंने सात शेर कह डाले। उनमें से अंतिम शेर आज भी याद है। बच्चों की शायरी है पि र भी आप सुन लें- करम में भी खुश है सितम में भी शादाँ बहर तौर 'निश्तर' गुलाम आपका है। (8) अपनी इंटर परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् निश्तर जी का परिचय उर्दू के प्रख्यात पत्रकार श्री हमीदुल अंसारी गाज़ी के साथ हुआ। फलस्वरूप वे बीस वर्ष की अवस्था में सन् 1950 में बंबई जाकर 'जम्हूरियत' दैनिक समाचार-पत्र में काम करने लगे। कुछ ही समय व्यतीत हुआ था कि गाँव में उनके पिताश्री एक दुर्घटना के शिकार हो गए। इसी कारण निश्तर जी को बंबई से वापस बिजनौर आना पड़ा। वे बिजनौर लौट तो आए किंतु उनका मन यहाँ लगा नहीं। वे बंबई में 'जम्हूरियत' में रहकर सीखी पत्रकारिता का उपयोग करना चाहते थे। साथ-ही-साथ पत्रकारिता-संबंधी अपने अल्पज्ञान को और आगे बढ़ाकर ठोस धरातल प्रदान करना चाहते थे। इसलिए वे सन् 1952 में दिल्ली चले गए। दिल्ली जाकर निश्तर जी का जुड़ाव विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से हुआ, जिनका संपादन उन्होंने अपनी मेहनत से कुशलतापूर्वक किया। अपने दिल्ली-गमन एवं प्रवास के संबंध में वे लिखते हैं- 'मैं 1952 के आस-पास दिल्ली चला गया था, जहाँ मुझे प्रगतिशील लेखक संघ की प्रसिद्ध पत्रिका 'शाहराह' को संपादित करने का अवसर मिला। यह दिल्ली की वह ऐतिहासिक पत्रिका थी, जिसे मुझसे पहले साहिर लुधियानवी, फ़िक्र तौसवीं, मख़मूर जालंधरी, ज़ोए अंसारी तथा वामिक़ जौनपुरी जैसी हस्तियाँ संपादित कर चुकी थीं। बाद में मैं सुप्रसिद्ध उर्दू मासिक 'बीसवीं सदी' से संबंध हो गया।' (9) निश्तर जी को 'बीसवीं सदी' में कार्य करते कुछ ही समय बीता था कि उसके मालिक जनाब ख़शतर गिरामी से किसी बात पर अनबन हो गई। इसलिए 'बीसवीं सदी' में काम करना छोडक़र, दोस्तों द्वारा प्रारंभ की गई पत्रिका 'मुशाहिदा' का संपादन-कार्य सँभाला। 'मुशाहिदा' पत्रिका का प्रकाशन साल-डेढ़ साल की लघु अवधि तक ही हो पाया। इस प्रकार विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं और पत्रिकाओं से जुडक़र तो कभी फ़ाकामस्ती के दिन व्यतीत करके निश्तर जी ने अपनी जिंदगी के सोलह वर्ष दिल्ली में बिताए। जीवनदायिनी गंगा के तट पर मुक्त वातावरण में रहने वाले, दूर तक गंगा-कछार को एकटक देखने वाले निश्तर जी को दिल्ली की रंगदार जिंदगी, जो अंदर से कुछ और है, तो बाहर से कुछ और, रास नहीं आई। उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा और वे सोलह वर्ष तक दिल्ली की विभिन्न साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करके सारे वातावराण को महकाकर, गठिया रोग से पीडि़त होकर पुन: बिजनौर लौट आए। तब से वे बिजनौर में अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हैं। बिजनौर मुख्यालय से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्रों 'बिजनौर टाइम्स', बिजनौर टाइम्स उर्दू और 'चिंगारी' से लंबे समय तक जुड़े रहे। वर्तमान में निश्तर साहब स्वतंत्र रूप से साहित्य-साधना में रत हैं। और अब यही उनका ध्येय है, यही उनका मिशन भी कि जीवन की अंतिम साँस तक वे साहित्य-साधना में निरत रहें।
(ङ) व्यक्तित्व : व्यक्ति पर उसके शैशवकाल के संस्कारों, उसके पारिवारिक परिवेश, देशकाल एवं उसकी सम-विषम परिस्थितियों का भरपूर प्रभाव पड़ता है। रचनाकार की परिस्थितियों का प्रभाव उसके रचना-संसार पर स्पष्ट रूप में झलकता है। रचनाकार अपनी सृजन-प्रक्रिया में स्वयं के जीवन की सहज, अनुभवगम्य एवं संवेदनात्मक घटनाओं को आत्मसात् करता है। अपने पात्रों के माध्यम से स्वयं के व्यक्तित्व एवं अनुभूतियों को अपनी कृतियों में अभिव्यक्ति प्रदान करता है। मनोवैज्ञानिक धरातल पर यह तथ्य स्वीकार किया जाता है कि प्रत्येक प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक गुण अधिकांशत: वंशानुक्रम से प्राप्त होते हैं। साथ ही इस सत्य की भी अवहेलना नहीं की जा सकती कि वातावरण, देशकाल एवं भौगोलिक परिस्थतियों का भी उस पर प्रभाव पड़ता है। ग़ज़लकार निश्तर ख़ानक़ाही के व्यक्तित्व पर उनके परिवेश का प्रभाव तो पड़ा ही, साथ ही काव्य-प्रतिभा उन्हें अपने परिवार से विरासत में मिली है, विशेष रूप में माताश्री से।' (10) इस बात से स्वयं ख़ानक़ाही जी भी सहमत दिखाई देते हैं- 'मुझे अपनी माँ की विरासत से जो कुछ मिला है, उसमें शायरी और साहित्य के प्रति लगन तो है ही, विपरीत परिस्थितियों और दुख-भरे हालात को बर्दाश्त करने का गुण भी है। मुझमें आम लोगों से कहीं ज़्यादा सहनशक्ति है। मेरी बरदाश्त का बाँध आसानी से नहीं टूटता।' (11) निश्तर ख़ानक़ाही अपने नामकरण के संबंध में एक दिलचस्प कहानी बताते हैं। वास्तव में आरंभ में उनका नाम अनवार हुसैन था। अनवार हुसैन ने अपनी उम्र के प्रथम दशक से ही शायरी करना आरंभ कर दिया था। नौ वर्ष की उम्र में जब उन्होंने अपने एक मित्र के साथ मिलकर ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया तो उस समय उपनाम रखने के लिए 'निश्तर' नाम उनके मित्र ने ही उन्हें सुझाया।' (12) यद्यपि शायरी करने की प्रतिभा निश्तर जी को अपनी माताश्री से मिली। पत्रकारिता, व्यंग्य, एकांकी, कहानी, कविता एवं अन्य प्रकार की लेखन-प्रतिभा उन्हें उत्तराधिकार में नहीं मिली, किंतु यह उनके लंबे साहित्यिक संघर्ष, विभिन्न साहित्यकारों, रचनाकारों से संपर्क तथा स्व-अर्जित ज्ञान का प्रतिफल है। साहित्य-सर्जन की विविधोन्मुखी प्रतिभा के धनी जनाब निश्तर ख़ानक़ाही उर्दू के साथ हिंदीसाहित्य-जगत् के गौरव स्तंभ हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व-कृतित्व से हिंदी-साहित्य एवं उर्दू-साहित्य समृद्ध हुआ है। निश्तर जी ने हिंदीसाहित्य को गद्य-पद्य दोनों विधाओं से अलंकृत किया है। आपके व्यक्तित्व में एक साथ समर्थ आलोचक, समीक्षक, ग़ज़लकार, एकांकीकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, पत्रकार एवं एक सच्चे मार्गदर्शक के विभिन्न आयामी विशिष्टताओं का सन्निवेश है। आपने अपनी बहु-आयामी प्रतिभा का परिचय साहित्य मेें ग़ज़ल, एकांकी, आलोचना, लेख, कहानी, व्यंग्य-निबंध आदि साहित्य विधाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। डा. मीना अग्रवाल उनके लेखन के संबंध में लिखती हैं- 'निश्तर साहब के सृजन का क्षेत्र एक नहीं है बल्कि यह कहिए कि साहित्य की कोई भी ऐसी विधा नहीं है, जिसमें उन्होंने लिखा न हो, चाहे कविता हो या कहानी। यहाँ तक कि उनके संपादकियों में भी आज की परिस्थितियों का सटीक चित्रण मिलता है।' (13) प्रख्यात साहित्यकार डा. गिरिराजशरण अग्रवाल दो दशक से भी अधिक समय से निश्तर जी के अत्यंत निकट रहे हैं। वे निश्तर जी को अपना काव्य गुरु भी मानते हैं। डा. अग्रवाल ने ख़ानक़ाही जी की प्रत्येक सम-विषम परिस्थिति को अत्यंत निकटता से देखा है। साथ-साथ उनकी साहित्यिक प्रतिभा को गहराई से महसूस किया है। इसीलिए वे कहते हैं- 'अगर मैं कहूँ कि निश्तर ख़ानक़ाही, जिन्होंने एक शायर या ग़ज़लकार के रूप में ख्याति प्राप्त की, मात्र एक शायर या ग़ज़लकार ही नहीं, वे एक सफल कहानीकार, नाटककार बल्कि गद्य की लगभग हर विधा में समान अधिकार के साथ लिखने वाले साहित्यकार हैं, तो आपमें से बहुत से पाठकों को आश्चर्य होगा। श्री ख़ानक़ाही ने नज़्में, ग़ज़लें, या कविताएँ ही नहीं लिखीं बल्कि कहानियाँ, नाटक, निबंध राजनीतिक संदर्भों के लेख, रेखाचित्र, व्यंग्य अर्थात गद्य की लगभग सभी विधाओं में लेखनकार्य किया और पूरे स्तर के साथ किया। यह बात और है कि अपनी काव्य-पुस्तकों के प्रकाशन से वे एक शायर के रूप में तो प्रसिद्ध हुए किंतु गद्य के अप्रकाशित रह जाने के कारण या कम प्रकाशित होने कारण साहित्य के अन्य क्षेत्रों में वह स्थान प्राप्त नहीं कर सके, जो उन्हें मिलना चाहिए था।' (14) यों तो ख़ानक़ाही जी कवि और शायर के रूप में प्रसिद्धि-प्राप्त रचनाकार हैं, किंतु उन्होंने अपना साहित्यिक परिचय एक कहानीकार के रूप में उस समय दिया, जब 1950-51 में तत्कालीन प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'बीसवीं सदी' में उनकी कहानी 'मरियम' प्रकाशित हुई। यह कहानी इतनी सशक्त थी कि कहानी तथा संपादक को भेजे पत्र पर वे अनजाने में अपना नाम लिखना भी भूल गए थे, किंतु कहानी केवल गाँव के नाम के साथ प्रकाशित हुई। (15) 'कहानी पर अपना नाम लिखना भूल जाने की बात, दरअसल, श्री ख़ानक़ाही की अपनी रचनाओं के प्रति लापरवाही और वैराग्य की भावना का द्योतक है। सच यह है कि वह अपनी रचनाओं के प्रति हमेशा से बहुत अधिक लापरवाह बने रहे हैं। इस पूरे साहित्यिक जीवन में उन्होंने जितना कुछ लिखा है, गद्य के रूप में अथवा पद्य के रूप में, वह कहाँ गया- कोई नहीं जानता। एक भेंट में उन्होंने बताया था कि युवावस्था में उन्होंने उर्दू में कुछ लंबे काव्य-नाटक लिखे थे, इनमें 'शैतान बख़्शा गया' और 'फ़रिश्ते खुदा के दरबार में' प्रकाशित होकर प्रसिद्ध भी हुए किंतु उनका अब कुछ अता-पता नहीं। (16) निश्तर साहब के लिए किसी भी विधा में लिखना सामान्य-सी बात है, किंतु उनके व्यक्तित्व का एक प्रभावशाली पक्ष है कि उनकी दृष्टि सदैव आदमी और उसके भीतर के आदमी, समाज और उसके भीतर के समाज पर टिकी रहती है, जो यथार्थ को कला के सुंदर रूप में प्रस्तुत करती है। इसका सटीक प्रमाण उनकी कहानी 'आधा हाथ पूरा जीवन' है। कहानी की नायिका मीरिया साइमन विकलांग होने के उपरांत भी स्वयं को समाज की दया का पात्र नहीं बनाना चाहती है, स्वयं संघर्ष करती है और कहती है- 'लोग मुझ पर दया करते हैं, मेरे साहस की प्रशंसा नहीं करते। क्या धर्म का अर्थ यही है कि दूसरों को हीन समझकर, कमज़ोर समझकर, निस्सहाय समझकर, सशक्त लोग अपने अहं की तृप्ति करते रहें। प्रभु मुझे क्षमा करना। मैं नहीं जानती, शब्दों के अर्थ समझने में कौन ठीक है और कौन ठीक नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि दया सशक्त लोगों द्वारा दुर्बल लोगों पर ही की जाती है। लेकिन दुर्बलता........? क्या केवल इसलिए बाक़ी रहनी चाहिए कि सशक्त लोग उससे दया के नाम पर अन्याय करते रहें।' (17) जनाब निश्तर ख़ानक़ाही बहुआयामी प्रतिभा संपन्न रचनाकार हैं। वे अपनेपन के भाव से आपूरित व्यक्ति हैं एवं रचनाकारों के सच्चे मार्गदर्शक हैं। निश्तर जी अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति हैं। वे कहते हैं- 'मौसी ने प्रमाणित किया था कि माँ के पेट से ही मैं इतना संवेदनशील था, जितने आम बच्चे साधारणतया नहीं होते हैं। बाद में इस संवेदनशीलता ने मेरे व्यक्तित्व को कितना जोड़ा-तोड़ा, यह कहानी बहुत लंबी है।' (18) निश्तर जी की संवेदनशीलता इतनी गहरी है कि वे इसी कारण जीवन में अनेक कष्टों को भी सहते रहे हैं। उन्होंने जिन बातों का विरोध करना चाहिए था उनका भी विरोध नहीं किया, अपितु चुपचाप महसूस करते रहे और अंदर ही अंदर घुलते रहे हैं, स्वयं पर कठोर अनुशासन करते रहे। वे लिखते हैं- 'अपने जीवन में मेरे लिए सबसे बड़ा अभिशाप मेरा संवेदनशील होना रहा है। इसी संवेदनशीलता के गर्भ से मेरी चारित्रिक दुर्बलता एवं भयग्रस्तता की नागफनी ने जन्म लिया। संवेदनशील न होता, केवल भावुक होता तो हालात अथवा अपने-परायों के व्यवहार की प्रतिक्रिया में चीख़ सकता था, शोर मचा सकता था, विद्रोह कर सकता था। किंतु मैं ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि संवेदनशील आदमी की प्रवृत्ति ही चुपचाप महसूस करना और देर तक घुलते रहना होती है। वह भडक़ता नहीं धीरे-धीरे सुलगता है और अंतत: स्वयं अपनी ही आग में जल-बुझकर राख हो जाता है।' (19) निश्तर जी झूठ और असत्य-भाषण, फरेबबाज़ी से घृणा करते हैं। अपनी बाल्यवस्था से ही वे इन दुर्गुणों से दूर रहे हैं। किसी लालच अथवा स्वार्थ-पूर्ति के लिए उन्होंने गलत का, समाज-विरोधियों का पक्ष नहीं लिया। वे सहृदय एवं निष्पक्ष साहित्यकार हैं। निश्तर जी का गुण है, किसी भी प्रकार की चतुराई, तिकड़मबाज़ी से दूर रहना। वे सदैव चापलूसों से अलग रहे हैं- चलन चापलूसों में सच का न था सो हमने स्वयं को निलंबित किया। (20) वर्तमान साहित्यकारों में एक वरिष्ठ एवं प्रमुख नाम है- निश्तर ख़ानक़ाही जी का। दुबला-पतला शरीर, थोड़ी झुकी कमर, लेकिन ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी कि देखकर ही नाम का अर्थ समझ में आ जाए। निश्तर जी का कद न अधिक लंबा है न छोटा, दरमियान कद-काठी के मालिक, चौड़ी मुहर वाला सफेद पाजामा, ऊपर कुर्त्ता एवं कुर्त्ते के बाहर बास्कट, बाल सीधे पीछे को काढे़ हुए, साफ-सपाट ऊँचा माथा, रिक्शा मिल गई तो ठीक, नहीं मिली तो हो लिए सडक़ की एक ठोर पर पैदल ही पैदल जहाँ तक रिक्शा नहीं मिलती अर्थात् किसी प्रकार की प्रतीक्षा नहीं करनी है। वस्तुत: यही सिद्धांत निश्तर जी ने अपने जीवन में अपनाया है, कुछ प्राप्त हो अथवा नहीं, किंतु साहित्य के क्षेत्र में विविध आयामों में गतिशील रहे हैं। निश्तर ख़ानक़ाही के नाम की साहित्यिक रूप में व्याख्या कर डा. मीना अग्रवाल लिखती हैं- 'नश्तर या निश्तर का अर्थ है चीर-फाड़ करने का यंत्र। साहित्य में चीर-फाड़ शब्दों के स्तर पर भी होती है। निश्तर साहब की शायरी भी एक ऐसा ही नश्तर है कि पाठक के दिल में स्वयं बिंध जाता है। उनकी शायरी हृदय को छूने वाली है।' (21) निश्तर जी की एक प्रवृत्ति और गुण है, सभी पर सहजता से विश्वास कर लेना। उनके संपर्क में यदि कोई व्यक्ति पहली बार भी आता है, तो वे उसकी बातों में, उसमें विश्वास कर लेते हैं। इस कारण कई बार उनको आहत भी होना पड़ता है, उन्होंने धोखा भी खाया है। वे केवल दुखी होकर कहते हैं- जिंदगी से सीख लीं, हमने भी दुनियादारियाँ रफ्ता-रफ्ता तुममें भी मौक़ा-परस्ती आ गई (22) क्योंकि निश्तर जी का स्वाभाविक गुण है दूसरों पर सहज रूप में विश्वास कर लेना। वे अपने पुराने संबंधों में सदैव अपनेपन की खोज करते रहते हैं। उन्होंने सदैव संघर्ष किया। वह चाहे सामाजिक क्षेत्र हो अथवा साहित्यिक क्षेत्र। उन्होंने तिल-तिल जलकर जिंदगी को जीना सीखा है। वास्तव में वे जीवट के धनी व्यक्ति हैं- भसम होके सीखा हुनर आग का बनाता हूँ काग़ज़ पे घर आग का (23) निश्तर जी ने सदैव नारी-जाति को सम्मान की दृष्टि से देखा है। उन्होंने उसके जीवन की पीड़ा को निकटता से समझा है। वह पीड़ा उनकी कहानियों, कविताओं, नाटकों आदि में व्यक्त हुई है। प्रख्यात उर्दू शायर इज़हार असर निश्तर जी को छठी इंद्रिय का शायर बताते हुए उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- 'निश्तर इस युग के जीते-जागते संवेदनशील इंसान हैं और इस युग की जितनी समस्याएँ हो सकती हैं, निश्तर उन सबसे गुज़रे हैं। स्वयं का दुख, रोज़गार का दुख, अपने-परायों का दुख, रिश्तों-नातों का दुख। तात्पर्य यह है कि दुख जितने भी हो सकते हैं, निश्तर ने उन सबका स्वाद लिया है।' (24) वास्तव में ख़ानक़ाही जी एक ऐसे जीवट संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी मानव हैं, जो दुखों के बाणों को शरीर और आत्मा की गहराइयों तक उतारने के उपरांत भी किसी स्तर पर विचलित नहीं होते, चीख़ते-चिल्लाते नहीं, अपितु एक दार्शनिक की भाँति इस युग के संबंधों की समीक्षा करते हुए अपने पथ पर अग्रसर हो जाते हैं। निश्तर साहब की एक पहचान यह भी है कि वे धार्मिक स्तर पर कोई भेदभाव नहीं रखते हैं। उनकी सोच सदैव जाति-पाति और सामाजिक भेदभाव से ऊपर उठकर व्यावहारिक स्तर की है। किंतु वे स्वयं को आस्थावान भी स्वीकारते हैं। उनका स्वयं का कथन है- 'साहित्य ने और वैज्ञानिक सोच ने मुझे और मेरे-जैसे कई औरों को भी दीन-धर्म, जाति-पाँति और सामाजिक भेदभाव से ऊपर उठकर सोचना एवं व्यवहार करना सिखाया। आप चाहें तो मेरे व्यक्तित्व में एक अर्द्ध नास्तिक पहलू जोड़ सकते हैं, जिसके भीतर कहीं-न-कहीं आस्थावान चोर छिपा है, लेकिन जो धार्मिक भेदभाव से पूर्णतया अलग है, जो आदमी को धर्म, जाति या अन्य किसी ख़ाने में रखकर नहीं देखता। मानव उसके लिए पहले भी मानव है और अंत में भी मानव, जो उसे उसकी समस्त दुर्बलताओं एवं प्रबलताओं-सहित स्वीकार करता है।' (25) निश्तर साहब सामाजिक स्तर पर आस्थावान भी हैं और धर्म में भी आस्था रखते हैं, लेकिन बुद्धि के स्तर पर धर्म में वे कोई आस्था नहीं रखते हैं। उनका मानना है कि जिस प्रकार भौतिकवादियों ने अपनी सत्ता के लिए शक्ति को आधार बनाया है, उसी प्रकार आध्यात्मिक सत्ता स्थापित करने वालों ने अपने विवेक और मानसिक शक्ति से ऐसी व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया, जो पहले से अधिक शक्तिशाली हो। इसी संदर्भ में अपनी रचना 'कैसे-कैसे लोग मिले' में लिखते हैं- 'बुद्धि के स्तर पर मेरी किसी भी धर्म में कोई आस्था नहीं है। मुझे लगता है, जैसे भौतिक सत्ता स्थापित करने वालों ने अपनी शक्ति से काम लेकर जनता को अपने अधीन बना रखा है, वैसे आध्यात्मिक सत्ता कायम करने वालों ने अपने विवेक और मानसिक शक्ति से काम लेकर एक ऐसी बड़ी व्यवस्था की, जो पहली व्यवस्था से भी कहीं ज़्यादा शक्तिशाली थी और फिर ये दोनों सत्ताएँ मिलकर आदमी को जड़ एवं दास बनाने में लग गईं।' (26) ख़ानक़ाही जी अत्यंत कोमल हृदय के व्यक्ति हैं। उनका अंतर्मन इतना कोमल एवं संवेदनशील है कि दर्द-भरी कहानी अथवा दृश्य देख-सुनकर ही उनकी आँखें नम हो उठती हैं। वे स्वयं भी इस बात की पुष्टि करते हैं। यथा- 'मैं बहुत ही कोमलहृदय आदमी हूँ। मोम की तरह जल्द पिघल जाने वाला। करुणा का भाव मेरी नस-नस में भरा है। अगर आप कभी कोई दुख-भरी कहानी पढ़ते हुए, पि़ ल्म का कोई दर्दीला दृश्य देखते हुए सबसे आँख बचाकर अपने रूमाल से आँसू पोंछते देख लें तो हैरत न करें। मेरी आँखें बहुत जल्द छलक उठती हैं। अतीत की यादें मुझे एकांत में भी रुला देती हैं। कई बार मैंने सोचा है कि अगर मेरी हद से बढ़ी हुई संवेदनशीलता बुद्धि से नियंत्रित न होती हो तो मैं अपने स्वभाव की दुर्बलता के कारण किसी भी असहनीय स्थिति को न झेल पाते हुए आत्महत्या भी कर सकता था। लेकिन मुझे कोमलहृदयता के साथ असाधारण सहनशक्ति तो मिली ही, साथ में विवेक से काम लेने की क्षमता भी.......इसलिए मैं खराब से खराब हाल में में जीवित रहा।' (27) निश्तर जी की संवेदनशीलता ही है, जो अपना ही नहीं समाज के हर दुख की कसक ये महसूस करते दिखाई देते हैं, इसीलिए वे लिखते हैं- धमक कहीं हो, लरजती हैं खिडक़ियाँ मेरी घटा कहीं हो, टपकता है सायबान मेरा। (28) शायर इज़हार असर ज़नाब निश्तर ख़ानक़ाही की संवेदनशीलता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- 'निश्तर अत्यधिक संवेदनशील शायर हैं इसीलिए उनकी रचनाओं में समकालीन चेतना अपनी पूरी प्रखरता के साथ विद्यमान है। उनका अस्तित्व संवेदनशील फ़ोटोग्रापि़ क प्लेट की तरह है। जिस तरह फ़ोटोग्रापि़ क प्लेट उस पर पड़ने वाले हर प्रकाश (चाहे वह दृष्टिगोचर हो, चाहे एक्सरे की तरह दिखाई न देता हो) का प्रतिबिंब खींचकर उसका चित्र उभार देती है, उसी प्रकार निश्तर की जिं़दगी हर दुख, हर सुख, हर रंग, हर छाया, हर अँधेरा, हर किरण अर्थात् हर स्थिति को आत्मसात् कर लेती है और पि र उस अनुभूति को शब्द-चित्र के रूप में उभार देती है।' (29) अस्तु, अपनी उम्र के सातवें दशक में चल रहे ग़ज़लकार, साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार ज़नाब निश्तर ख़ानक़ाही का जीवन नितांत ग्रामीण परिवेश से आरंभ हुआ जो दिल्ली, बंबई तक पहुँचा, किंतु पुन: वापस अपने गृह जनपद मुख्यालय लौटा और यहीं का होकर रह गया। लौटने के बाद अपनी साहित्य-साधना में लीन हो गया, जो आज भी साधनारत है। हमारी कामना है कि बहुआयामी प्रतिभा-संपन्न साहित्यकार ज़नाब निश्तर ख़ानक़ाही दीर्घायु पाएँ और हिंदी-साहित्य को समृद्ध करते रहें।
(च) कृतित्व : प्रख्यात समीक्षक, नाटककार, ग़ज़लकार और व्यंग्यकार निश्तर ख़ानक़ाही के साहित्यिक कृतित्व की ओर दृष्टि डालते हैं तो वह जहाँ विस्तृत रूप में फैला है, वहीं उपलब्ध कृतियों की दृष्टि से उँगलियों में गिना जा सकता है। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन के प्रथम दशक से लेखन आरंभ किया हो, और जो जीवन के सात दशकों तक अबाध गति से बराबर लेखनी चला रहा हो, उसकी कृतियाँ इतनी कम मात्रा में उपलब्ध हों तो आश्चर्य एवं विस्मय की बात अवश्य है। 'इतने लंबे साहित्यिक जीवन में भी निश्तर का इतना कम साहित्य क्यों उपलब्ध है? यह प्रश्न सहज जिज्ञासा का विषय है। इसके पीछे दो कारण हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं की कोई प्रति अपने पास नहीं रखी। आकाशवाणी से प्रकाशित होने वाली अथवा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं- रूपकों, कहानियों, लेखों, नज़्मों अथवा ग़ज़लों की प्राय: कोई प्रति उनके पास नहीं है। दूसरा कारण तो और भी कष्टप्रद है। उन्हीं के शब्दों में- 'उस्तादों की तलाश से निराश होकर जब मैंने अभ्यास और पुस्तकों को अपना गुरु माना तो हर साल रचनाओं का एक बड़ा संग्रह तैयार हो जाता, किंतु मैं हर साल स्वयं उसे आग लगा देता। यह सिलसिला लगभग बीस वर्ष तक चलता रहा। हर पांडुलिपि पाँच सौ से सात सौ पृष्ठों तक की होती थी।' (30) ग़ज़लकार निश्तर जी के इस कथन से ही कल्पना की जा सकती है कि यदि उनके द्वारा रचित साहित्य का व्यवस्थित रूप से प्रकाशन होता तो साहित्य-जगत् को आज उनका विपुल साहित्य पढ़ने को उपलब्ध होता। जीवन की विभिन्न विकट समस्याओं से दो-चार होते हुए समय की गति के साथ निश्तर जी का जीवनचक्र भी आगे बढ़ता रहा। अब यदि हम उनके रचना-संसार में झाँकने का प्रयास करते हैं तो हिंदी भाषा में प्रकाशित उनकी निम्नलिखित कृतियाँ उपलब्ध हैं-
1. मोम की बैसाखियाँ सन् 1987 2. धमकीबाजी के युग में सन् 1995 3. दंगे क्यों और कैसे सन् 1995 4. ग़ज़ल मैंने छेड़ी सन् 1997 5. विश्व आतंकवाद : क्यों और कैसे सन् 1997 6. कैसे कैसे लोग मिले सन् 1998 7. चुने हुए ग्यारह एकांकी सन् 1998 8. मानवाधिकार : दशा और दिशा सन् 1998 9. ग़ज़ल और उसका व्याकरण सन् 1999 10. मेरे लहू की आग
संदर्भ संकेत 1. शोध दिशा, अप्रैल 1997 पृ. 10 2. कैसे कैसे लोग मिले, पृ. 93-94 3. मोम की बैसाखियाँ, पृ. 06 4. वही, भूमिका, पृ. 07 5. वही, भूमिका, पृ. 10 6. वही, भूमिका, पृ. 10 7. शोध दिशा, अप्रैल 1997, पृ. 17 8. मोम की बैसाखियाँ, पृ. 07 9. कैसे कैसे लोग मिले, पृ. 103-104 10. मोम की बैसाखियाँ, पृ. 06 11. कैसे कैसे लोग मिले, पृ. 99 12. मोम की बैसाखियाँ, पृ. 7-8 13. शोध दिशा, अप्रैल 1997, पृ. 37 14. शोध दिशा, अप्रैल 1997, पृ. 40 15. वही, पृ. 40 16. वही, पृ. 41 17. विकलांग जीवन की कहानियाँ, पृ. 74 18. शोध दिशा, अप्रैल 1997, पृ. 09 19. वही, पृ. 08 20. ग़ज़ल मैंने छेड़ी, पृ. 39 21. शोध दिशा, अप्रैल 1997, पृ. 37 22. मोम की बैसाखियाँ, पृ. 33 23. वही, पृ. 125 24. शोध दिशा, अप्रैल 1997, पृ. 33 25. वही, पृ. 20 26. कैसे कैसे लोग मिले, पृ. 106 27. वही, पृ. 105 28. मोम की बैसाखियाँ, पृ. 91 29. शोध दिशा, अप्रैल 1997, पृ. 34 30. मोम की बैसाखियाँ, पृ. 13