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जहां मैं हूं / नवनीत पाण्डे

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जहां मैं हूं
क्या नहीं है वहां
सब कुछ तो है
जिसे मैं समझता हूं सब कुछ
एक बूढा आदमी
याद नहीं
उसने स्वयं कभी मुझे अपना बेटा कहा हो
लोगों से ही सुना-जाना था
क्या नहीं है वहां
जहां मैं हूं
सब कुछ तो है दिखणादे मुंहवाले
बीस गुणा चालीस धरती के एक हिस्से पर खड़ा
एक ढांचा
जो जाना जाता है मेरे घर के नाम से
जिस में मैं हूं
वह बूढा,मेरा पिता है
और साथ ही है हम दोनों की बीती हुई
उम्र का मौन
किसी टुन्नाए भूत सा
जब-तब बोल जाता है
हमारी हदों पर हंसते हुए
सारे कपड़े खोल जाता है।