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गान / जयशंकर प्रसाद

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जननी जिसकी जन्मभूमि हो; वसुन्धरा ही काशी हो

विश्व स्वदेश, भ्रातु मानव हों, पिता परम अविनाशी हो

दम्भ न छुए चरण-रेणु वह धर्म नित्य-यौवनशाली

सदा सशक्त करों से जिसकी करता रहता रखवाली

शीतल मस्तक, गर्म रक्त, नीचा सिर हो, ऊँचा कर भी

हँसती हो कमला जिसके करूणा-कटाक्ष में, तिस पर भी

खुले-किवाड़-सदृश हो छाती सबसे ही मिल जाने को

मानस शांत, सरोज-हृदय हो सुरभि सहित खिल जाने को

जो अछूत का जगन्नाथ हो, कृषक-करों का ढृढ हल हो

दुखिया की आँखों का आँसू और मजूरों का कल हो

प्रेम भरा हो जीवन में, हो जीवन जिसकी कृतियों में

अचल सत्य संकल्प रहे, न रहे सोता जागृतियों में

ऐसे युवक चिरंजीवी हो , देश बना सुख-राशी हो

और इसलिये आगे वे ही महापुरुष अविनाशी हो