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विश्वसुंदरी / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

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खिल उठता है हृदय गगन का,
जल, थल, अनिल, अनल, कण-कण का,
खिलती है जब इन अधरों पर ऊषा-सी मुस्कान,
जग के श्रांत पथिक, बन मधुकर,
मधु ले जाते हैं, रुक पल-भर,
दशों दिशाएँ शतदल-सी खिल करने लगतीं दान,
खिलती है जब इन अधरों पर ऊषा-सी मुस्कान।
सकल कामना लय होती है,
चतुर चेतना भी सोती है,
इन नयनों में भर ढलकाती हो जब मद की धार,
अँगड़ाई लेता है यौवन
मुँद जाते सुख-दुख के लोचन,
आह, झूम उठता है प्रति-क्षण पागल-सा संसार,
इन नयनों में भर ढलकाती हो जब मद की धार,
सर के लहराते जीवन-सा,
जब, स्वर लहरी के कंपन-सा,
लहराता है मलयानिल में इस अंचल का छोर,
पाते ही असीम आह्वान,
लहरा देता है अनजान,
प्राची और प्रतीची के प्राणों में एक हिलोर,
लहराता जब मलयानिल में इस अंचल का छोर।
खग करते कलरव अंबर में,
लहरें उठती हैं सागर में,
भर देती हो अखिल शून्य को जब गाकर तुम गान,
वेदना बनती विकल बिहाग,
मौन संध्या का धीमा राग,
जड़ जग के होते हैं चेतन तान-तान पर प्राण,
भर देती हो अखिल शून्य को जब गाकर तुम गान।
पुलकित होता है नंदनवन,
थिरक-थिरक उठते हैं उडुगण,
अपनी तानों की गति पर जब तुम करने लगती हो नर्तन,
सुन कर नूपुर की झंकार,
खुलते हैं रवि-शशि के द्वार,
इन चरणों के ताल-ताल पर त्रिभुवन में होता है कंपन,
अपनी ही तानों की गति पर जब तुम करने लगतीं नर्तन,