भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो-चार गाम / निदा फ़ाज़ली

Kavita Kosh से
Prabhat.gbpec (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:57, 17 जनवरी 2012 का अवतरण (हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी.....)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दो-चार गाम राह को हमवार देखना फिर हर क़दम पे इक नयी दीवार देखना |

आँखों की रौशनी से है हर संग आइना हर आईने में खुद को गुनाहगार देखना |

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो कई बार देखना |

मैदाँ की हार-जीत तो क़िस्मत की बात है टूटी है जिसके हाथ में तलवार देखना |

दरिया के उस किनारे सितारे भी फूल भी दरिया चढ़ा हुआ हो तो उस पार देखना |

अच्छी नहीं है शहर के रस्तों की दोस्ती आँगन में फैल जाए न बाज़ार देखना.....!