Last modified on 28 सितम्बर 2007, at 18:13

प्रात भयौ, जागौ गोपाल / सूरदास

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:13, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण

प्रात भयौ, जागौ गोपाल ।
नवल सुंदरी आईं, बोलत तुमहि सबै ब्रजबाल ॥
प्रगट्यौ भानु, मंद भयौ उड़पति, फूले तरुन तमाल ।
दरसन कौं ठाढ़ी ब्रजवनिता, गूँथि कुसुम बनमाल ॥
मुखहि धौइ सुंदर बलिहारी, करहु कलेऊ लाल ।
सूरदास प्रभु आनँद के निधि, अंबुज-नैन बिसाल ॥

भावार्थ :-- (मैया कहती हैं -) `हे गोपाल! सबेरा हो गया, अब जागो । व्रज की सभी नवयुवती सुन्दरी गोपियाँ तुम्हें पुकारती हुई आ गयी हैं । सूर्योदय हो गया,चन्द्रमा का प्रकाश क्षीण हो गया, तमाल के तरुण वृक्ष फूल उठे, व्रज की गोपियाँ फूलों की वनमाला गूँथकर तुम्हारे दर्शन के लिये खड़ी हैं । मेरे लाल! अपने सुन्दर मुख को धोकर कलेऊ करो, मैं तुम पर बलिहारी हूँ ।' सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी कमल के समान विशाल लोचन वाले तथा आनन्द की निधि हैं । (उनकी निद्रा में भी अद्भुत शोभा और आनन्द है ।)