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किसको कौन उबारे! / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
बिना नाव के माझी मिलते
मुझको नदी किनारे
कितनी राह कटेगी चलकर
उनके संग सहारे!
इनके-उनके ताने सुनना
दिन-भर देह गलाना
बंधा रुपैया मजदूरी का
नौ की आग बुझाना
अपनी-अपनी ढपली सबकी
सबके अलग शिकारे!
बढ़ती जाती रोज उधारी
ले-दे काम चलाना
रोज-रोज झोपड़ पर अपने
नए तगादे आना
अपनी-अपनी घातों में सब
किसको कौन उबारे!
पानी-पानी भरा पड़ा है
प्यासा मन क्या बोले
किसकी प्यास मिटी है कितनी
केवल बातें घोले
अपनी आँखों में सपने हैं
उनकी में सुख सारे!