भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब दधि-रिपु हाथ लियौ / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:54, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग बिलावल जब दधि-रिपु हाथ लियौ ।<br> खगपति-अर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग बिलावल

जब दधि-रिपु हाथ लियौ ।
खगपति-अरि डर, असुरनि-संका, बासर-पति आनंद कियौ ॥
बिदुखि-सिंधु सकुचत, सिव सोचत, गरलादिक किमि जात पियौ ?
अति अनुराग संग कमला-तन, प्रफुलित अँग न समात हियौ
एकनि दुख, एकनि सुख उपजत, ऐसौ कौन बिनोद कियौ ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे गहत ही एक-एक तैं होत बियौ ॥

भावार्थ :-- श्रीकृष्णचंद्रने मथानी हाथ में ली, तब वासुकि नाग डरे (कहीं मुझे समुद्र-मन्थनमें फिर रस्सी न बनना पड़े) दैत्योंके ,मनमें शंका हुई ( हमें फिर कहींसमुद्र न मथना पड़े ) । सूर्यको आनन्द हुआ ( अब प्रलय होगी, अतः मेरा नित्यका भ्रमण बंद होगा)। कष्ट के कारण समुद्र संकुचित हो उठा (मैं फिर मथा जाऊँगा)। शंकरजीसोचने लगे कि (एक बार तो किसी प्रकार विष पी लिया, अब इस बारके समुद्र-मन्थनसे निकले ) विष आदि ( दूषित तत्त्वों) को कैसे पिया जायगा । अत्यन्त प्रेम के कारण (प्रभुसे पुनः मेरा विवाह होगा, यह सोचकर ) लक्ष्मीजीका शरीर पुलकित हो रहा है, उनका हृदय आनन्दके मारे शरीरमें समाता नहीं (प्रेमाश्रु बनकर नेत्रों से निकलने लगा है)। सूरदासजी कहते हैं- प्रभु! आपने ऐसा यह क्या विनोद किया है, जिससे कुछ लोगोंको दुःख और कुछ को सुख हो रहा है । आपके ,मथानी पकड़ते ही एक-एक करके यह कुछ दूसरा ही (समुद्र-मन्थनका दृश्य) हो गया है ।