भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आये बदरा छाये / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
बड़े दिनों के बाद गगन में
आये बदरा छाये
आते ही झट लगा खेलने
सूरज आँख-मिचौनी
घुले-मिले तो ऐसे-जैसे
मिश्री के संग नैनी
बाट जोहते रहे बटोही
धूप-छाँव के साये
हुआ मगन मन गाये कजरी
गाये बारहमासी
लहकी-थिरकी है पुरवइया
देख पक्षाभ-कपासी
औचक-भौचक ढ़ोल-मजीरा
मौसम धूम मचाये
करो हरी तुम कोख धरा की
आओ बदरा बरसो
क्या रक्खा है कल करने में
या करने में परसों
उम्मीदों की फसल उगाओ
हमने दीप जगाये