प्रात समय दधि मथति जसोदा / सूरदास
प्रात समय दधि मथति जसोदा,
अति सुख कमल-नयन-गुन गावति ।
अतिहिं मधुर गति, कंठ सुघर अति,
नंद-सुवन चित हितहि करावति ॥
नील बसन तनु, सजल जलद मनु,
दामिनि बिवि भुज-दंड चलावति ।
चंद्र-बदन लट लटकि छबीली,
मनहुँ अमृत रस ब्यालि चुरावति ॥
गोरस मथत नाद इक उपजत,
किंकिनि-धुनि सनि स्रवन रमावति ।
सूर स्याम अँचरा धरि ठाढ़े,
काम कसौटी कसि दिखरावति ॥
भावार्थ :-- प्रातःकाल यशोदाजी दहगी मथते समय अत्यन्त आनन्दसे अपने कमललोचन कुमारके गुण गा रही हैं । बड़े सुन्दर कण्ठ से अत्यन्त मधुर लयमें श्रीनन्दनन्दनके प्रति प्रेमपूर्ण चित्त लगाये हुए गा रही हैं । उनके शरीर पर नीली साड़ी ऐसी लगती है मानो पानी भरे मेघ हों, । बिजलीके समान दोनों भुजाओं को वे हिला रही हैं । उनके चंद्रमुखपर सुन्दर अलकें ऐसी लटकी हैं मानो सर्पिणियाँ अमृतसरकी चोरी कर रही हों । दही मथते समय (मथानीका) एक शब्द हो रहा है और उससे मिला करधनीका शब्द सुनती हुई वे अपने कानोंको आनन्द दे रही हैं (उस शब्दमें स्वर मिलाकर गा रही हैं)। सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दर उनका अञ्चल पकड़कर खड़े हैं, मानो कामदेव को कसौटीपर कसकर दिखला रहे हैं । (कामदेव क्या इतना सुन्दर है? यह अपनी शोभासे सूचित करते हुए काम के सौन्दर्यकी तुच्छता स्पष्ट कर रहे हैं ।)