अनिरुद्ध सिन्हा गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब हूँ पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ
मुमकिन पतों के बाद भी पहुँचे न जो कभी वैसे ख़तों का लौट के आया जवाब हूँ
ऐसा लगा कि झूठ भी सच बोलने लगा पीकर न होश में रहे, मैं वो शराब हूँ
हद से कहीं हँसा न दें मेरी कहानियाँ इक मुख़्तसर-सी रात का नन्हा-सा ख़्वाब हूँ
माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!