किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं / सूरदास
किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं ?
मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं !
अनहोनी कहुँ भई कन्हैया, देखी-सुनी न बात ।
यह तौ आहि खिलौना सब कौ, खान कहत तिहि तात !
यहै देत लवनी नित मोकौं, छिन छिन साँझ-सवारे ।
बार-बार तुम माखन माँगत, देउँ कहाँ तैं प्यारे ?
देखत रहौ खिलौना चंदा, आरि न करौ कन्हाई ।
सूर स्याम लिए हँसति जसोदा, नंदहि कहति बुझाई ॥
भावार्थ ;-- (माता पश्चाताप करती है-) `कौन-सा उपाय करके अब मैं कन्हाईको समझा सकूँगी । भूल मुझसे ही हुई जो मैंने (इसे) चन्द्रमा दिखलाया; अब यह कहता है कि उसे मैं खाऊँगा ।' (फिर श्यामसे कहती हैं-) `कन्हाई! जो बात न हो सकती हो, वह कहीं हुई है; ऐसी बात तो न कभी देखी और न सुनी ही (कि किसीने चन्द्रमाको खाया हो)। यह तो सबका खिलौना है, लाल! तुम उसे खानेको कहते हो? (यह तो ठीक नहीं है । वही प्रत्येक दिन प्रात-सायँ क्षण-क्षणपर मुझे मक्खन देता है और तुम मुझसे बार-बार मक्खन माँगते हो । (जब इसीको खा डालोगे) तब प्यारे लाल! तुम्हें मैं मक्खन कहाँसे दूँगी ? कन्हाई हठ मत करो, इस चन्द्रमा रूपी खिलौनेको बस, देखते रहो (यह देखा ही जाता है, खाया नहीं जाता)।' सूरदासजी कहते हैं कि यशोदाजी श्यामसुन्दरको गोदमें लिये हँस रही हैं और श्रीनन्दजीसे समझाकर (मोहनकी हठ) बता रही हैं ।