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दस मिनट-2 / राहुल राजेश

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इन्हीं दस मिनटों में मेरे नथुनों में भरती थी
जीवन की ताजी महक
इन्हीं दस मिनटों में मैं करता था तय
हजार हजार प्रकाश वर्षों का सफर
इन दस मिनटों में
मैं एक स्त्री की दुनिया में होता था
एक स्त्री मेरी दुनिया में होती थी
इन दस मिनटों में मैं एक स्त्री के साथ होता था
एक स्त्री मेरे साथ होती थी
जिसे दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री कहने की इच्छा होती थी

रोज सुबह ठीक दस बजे शुरू होता था यह दस मिनट
जैसे ठीक दस बजे बस-स्टॉप पर आती हो
कोई खास नंबर की बस
जिसपर सवार होकर जाना हो ठीक किसी खास रस्ते पर
ठीक सामने बैठी किसी खास स्त्री के साथ
और ठीक दस मिनट बाद उतर जाना हो
उस स्त्री को किसी दूसरी बस के लिए
और आप अपने ही बस में बैठे बैठे हो जाते हों उसके साथ

पूरे दिन भर का सबसे सुंदर टुकड़ा यह समय का
दिन भर चलता हो आपके साथ एक खनकदार
चमकदार सिक्के की तरह
और आप घर लौटकर रख देते हों उसे
अपनी जिंदगी की बेशकीमती गुल्लक में जतन से सहेजकर
कि जब कभी अगर करें आप अपनी जिंदगी का हिसाब
तो नुकसान के तौर पर भले ही निकल जाए आपकी सारी उम्र
नफा के तौर पर बचे रहें रोज के ये अनगिनत दस मिनट

पर एक दिन अचानक साथ छोड़ गए आदमी की तरह
हाथ छोड़ गया यह दस मिनट

बीत गए दिन कई पर
मैं भटक रहा हूँ उसी दस मिनट की तलाश में
खड़ा हूँ उसी बस-स्टॉप पर
कई कई दिनों से उसी स्त्री के इंतजार में

कई कई दिनों से मेरे फेफड़ों में नहीं भरी है हवा
कई कई दिनों से मेरी आँखों में है अंधेरा
कई कई दिनों से मेरे सीने में है जलन
कई कई दिनों से मेरे हौसले हैं पस्त
कई कई दिनों से बेज़ान हैं मेरे पैर
कई कई दिनों से मुर्दा हैं मेरी साँसें

कई कई दिनों से भटक रहा हूँ मैं
यहाँ से वहाँ न जाने कहाँ से कहाँ
इस दस मिनट की तलाश में

कई कई दिनों से मेरी जिंदगी की गुल्लक में
नहीं उतरे चमकदार खनकदार सिक्के
जब से हाथ से गया है रोज का यह दस मिनट
तब से जिंदगी के हिसाब में लगातार हुआ जा रहा है नुकसान
नफा के नाम पर जो कुछ भी था
वो भी ले गया यह दस मिनट अपने साथ

जैसे स्टेशन पर छूटते हैं
विदा होते हाथों से हाथ
ठीक वैसे ही छूटा
रोज के इस दस मिनट से
मेरा उम्र भर का साथ
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