भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कदंब कालिंदी (दूसरा वाचन) / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:25, 10 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=नदी की बाँक पर छाय...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अलस कालिन्दी-कि काँपी
टेरी वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार अपने-आप
झुक आयी कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले-
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूँद
फिर-उसी बहती नदी का
वही सूना कूल!-
पार-धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!
कुछ तो टूटे
मिलना हो तो कुछ तो टूटे
कुछ टूटे तो मिलना हो
कहने का था, कहा नहीं
चुप ही कहने में क्षम हो
इस उलझन को कैसे समझें
जब समझें तब उलझन हो
बिना दिये जो दिया उसे तुम
बिना छुए बिखरा दो-लो!

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980