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हम तुम हैं आधी रात है और माहे-नीम है / पवन कुमार

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हम तुम हैं आधी रात है और माहे-नीम है
क्या इसके बाद भी कोई मंज“र अज़ीम है

लहरों को भेजता है तकाजे के वास्ते
साहिल है कर्जदार समंदर मुनीम है

वो खुश कि उसके हिस्से में आया है सारा बाग“
मैं ख़ुश कि मेरे हिस्से में बादे-नसीम है

क्या वज्ह पेश आयी अधूरा है जो सफ’र
रस्ता ही थक गया है कि राही मुकीम है

जब जब हुआ फ’साद तो हर एक पारसा
साबित हुआ कि चाल चलन से यतीम है

फेहरिस्त में तो नाम बहुत दर्ज हैं मगर
जो गर्दिशों में साथ रहे वो नदीम है

मज़हब का जो अलम लिए फिरते हैं आजकल
उनकी नज़र में राम न दिल में रहीम है

साया है कम तो फि’क्र नहीं क्यूँ कि वो शजर
ऊँचाई की हवस के लिए मुस्तकीम है

अज़ीम = शानदार, वुसूलयाबी = वसूलने के लिए, बाद-ए-नसीम = शीतल/सुगन्धित हवा,
मुकीम = ठहरा हुआ, फ’साद = झगड़ा, नदीम = दोस्त, मुस्तकीम = सीधा खड़ा हुआ