खद्योत / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
प्रकृति-चित्र-पट असित-भूत था
छिति पर छाया था तमतोम।
भाद्र-मास की अमा-निशा थी
जलदजाल पूरित था व्योम।
काल-कालिमा-कवलित रवि था
कलाहीन था कलित मयंक।
परम तिरोहित तारक-चय था,
था कज्जलित ककुभ का अंक।1।
दामिनि छिपी निविड़ घन में थी
अटल राज्य तम का अवलोक।
था निशीथ का समय, अवनितल
का निर्वापित था आलोक।
ऐसे कुसमय में तम-वारिधि
मज्जित भूत निचय का पोत।
होता कौन न होता जग में
यदि यह तुच्छ कीट खद्योत।3।
ललना-लाभ
खुला था प्रकृति-सृजन का द्वार।
हो रही थी रचना रमणीय।
बिरचती थी अति रुचिकर चित्र।
तूलिका बिधि की बहु कमनीय।1।
रंग लाती थी हृदय-तरंग।
बह रहा था चिन्ता का सोत।
मंद गति से अवगति-निधि मधय।
चल रहा था जग-रंजन पोत।2।
चित्र-पट पर भव के उस काल।
खिंच गयी एक मूर्ति अभिराम।
सरलता कोमलता अवलम्ब।
सरसता मय मोहक रति काम।3।
उमा सी महिमा मयी महान।
रमा सी रमणीयता निकेत।
गिरासी गौरव गरिमावान।
मानवी जीवन-ज्योति उपेत।4।
अलौकिक केलि-कला-कुल कान्त।
हृदय-तल सुललित लीलाधाम।
मधार माता-मानस-सर्वस्व
नाम था ललना लोक-ललाम।5।