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रसोई की पनाह / रति सक्सेना

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जब भी मेरा आसमान

मेरी हथेली में भिंच

चिपचिपाने लगता है

मेरा आसपास

अनजाना बन मंडराने लगता है

मैं भागती हूँ

रसोई की पनाह में

कट-कट कटती जाती हैं

लौकी, गाजर, भिंडियाँ

बिना किसी शिकायत के

फिर चढ़ जाती हैं आग पर

मेरी ऐवज

मैं फिर से तैयार हो जाती हूँ

परोसी जाने के लिए