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दीठ रो फरक / मदन गोपाल लढ़ा

एक छोटै टाबर री
आंख्यां मे हुवै
एक जींवतो सपनो।
सपनैं में
एक लीलोछम रूंख
उण माथै चीं-चीं करती
रंग-बिरंगी चिड़कल्यां
मीठा गीत उगेरती कोयल
नाचतो-बोलतो मोर।
थारी चतर आंख्यां में ई
हाल हर्यो है एक सपनो
जिण में आप जोखो
लकड़ी रै मूंघा भाव मुजब
बिरछ रो वजन
अर आपरै हाथां नाचै
एक कुवाड़ो।

म्हनैं पड़तख लखावै
टाबर रै सपनै अर
आपरै कुवाडै़ में
जुगां जूनो बैर है
बिरछ री डाळयां ओटै
आप काटो
टाबर रै जींवता सपनां नै !