नागी साच / कन्हैया लाल सेठिया
तू लिखै
जकां रै वासतै
कोनी समझै बै
करसा‘र कमतरिया
थारी कविता ,
कोनी ओलखै
मुखौटा लगायोड़ा
सबदां रो उणियारो,
मान ली तू
मतै ही
निज री हबस नै
हियै री संवेदणा,
गयो हो के कणाईं गमी मांदगी में
बीं रै घिनतै झूंपै में
जको रोज आवै
बुहारण नै थारौ जाजरू,
आई ही के कणाईं देण री मन में
फाटयोड़ी-मोचड़यां
बीं छोरै नै
जको उबाणै पगां
नाखै दोपारां री लाय मैं
थारी रसोई वास्तै
बलीतै रो भारो ?
बंधायो हो के जा‘र सागै
बीं अधमाणस रै
टूटयोडै़ हाथ रै पाटो
जको छांग‘र नीरै
थारी छयाली नै लूंग ?
कर चीत,
धोया हा के कणांई
अड़ी अड़ांस में
जायोड़ां रो पोतड़िया ?
कोनी करै के तू
पड़यां मौको
निज स्यूं निबलां रै डोको ?
दै आं सवालां रो
पडूतर
मत फिर लकोतो मूंडो,
धाप्योड़ो मींढको
बोलै कुऐं में उंडो।