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धुआँ, आग का सही पता है / गुलाब सिंह

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कितने बेगाने लगते हैं
अपने ही साए,
सपने हमें यहाँ तक लाए।

प्यारी रातें नींद सुहानी
चढ़ता गया सिरों तक पानी,
कागज वाले गुलदस्तों से
हमने की कल की अगवानी,

दो हाथों की सौर पुरानी
पाँव ढँकें तो मुँह खुल जाए।

सुख का महल अटारी कोठा
कंधे डोर हाथ में लोटा,
रोने मुँह धोने की खातिर
आखिर और कौन धन होता?

वैभव के इस राज भवन में
हम साभार गए पहुँचाए।

घर के भीतर डर जगता है
बाहर अँधियारा लगता है,
उमड़े, उठे, आँख भर आए
धुआँ, आग का सही पता है,

रोज-रोज की गीली सुलगन
फूँक लगे शायद जल जाए।