भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आये हैं चुप रहने / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:01, 6 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |संग्रह=बाँस-वन और बाँ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बाँह बिजायठ कमर कौड़ियाँ
सीप शंख के गहने
रात-रात भर जाग-जाग कर
आए हैं चुप रहने।
जंगल-जंगल पात-पात को
बेसुध गाकर मौन हो गए,
जड़ से माथा टिका
दूसरे पल साखू-सगौन हो गए,
पत्थर-पत्थर आग
नदी का पानी भाई-बहनें।
ओंठ जामुनी नयन अधपके-
हरे आम की फाँकें,
सीने की धड़कन से लिपटे
सपने कल के झाँकें,
देह साँवली अधनंगी
सदियों के नाम उलहने।
बादल के कंधो पर जब-जब
इन्द्र धनुष की डोर तनी,
लगा कि सूरज ओझल भर है
फैलेगी ही धूप घनी,
झलकी दिन की पीठ
पहाड़ी दिखी सुरमई पहने।