भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेजगह / अनामिका

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


“अपनी जगह से गिर कर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून” -
अन्वय करते थे किसी श्लोक को ऐसे
हमारे संस्कृत टीचर।
और मारे डर के जम जाती थीं
हम लड़कियाँ अपनी जगह पर।

जगह ? जगह क्या होती है ?
यह वैसे जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही।

याद था हमें एक-एक क्षण
आरंभिक पाठों का–
राम, पाठशाला जा !
राधा, खाना पका !
राम, आ बताशा खा !
राधा, झाड़ू लगा !
भैया अब सोएगा
जाकर बिस्तर बिछा !
अहा, नया घर है !
राम, देख यह तेरा कमरा है !
‘और मेरा ?’
‘ओ पगली,
लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता।"

जिनका कोई घर नहीं होता–
उनकी होती है भला कौन-सी जगह ?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।

कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फंस कर बाहर आए केशों-सी
एकदम से बुहार दी जाने वाली ?

घर छूटे, दर छूटे, छूट गए लोग-बाग
कुछ प्रश्न पीछे पड़े थे, वे भी छूटे!
छूटती गई जगहें
लेकिन, कभी भी तो नेलकटर या कंघियों में
फंसे पड़े होने का एहसास नहीं हुआ !

परंपरा से छूट कर बस यह लगता है–
किसी बड़े क्लासिक से
पासकोर्स बी.ए. के प्रश्नपत्र पर छिटकी
छोटी-सी पंक्ति हूँ–
चाहती नहीं लेकिन
कोई करने बैठे
मेरी व्याख्या सप्रसंग।

सारे संदर्भों के पार
मुश्किल से उड़ कर पहुँची हूँ
ऐसी ही समझी-पढ़ी जाऊँ
जैसे तुकाराम का कोई
अधूरा अंभग !