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मेरे प्रेम दिये को भाता तेरा अँगना था / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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वो भी साबुत बचा नहीं होता।
रब अगर लापता नहीं होता।

झूठ ने इस कदर पिला दी मय,
पाँव पर सच खड़ा नहीं होता।

ताज को छू के मौलवी कह दे,
पत्थरों में ख़ुदा नहीं होता।

नूर सूरज से छीन लेता है,
पेड़ यूँ ही हरा नहीं होता।

लूट लेते हैं फूल को काँटे,
आज दुनिया में क्या नहीं होता।