भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे बच्चे / शरद बिलौरे

Kavita Kosh से
Hemendrakumarrai (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:55, 25 दिसम्बर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{{KKRachna रचनाकारः शरद बिल्लौरे |संग्रह=तय तो यही हुआ था / शरद बिल्लौरे }}

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


कल मैं उन्हे विदा दूँगा
उनकी स्कूल की वर्दी में
उन्हे सड़क पार करा कर लौट आऊँगा।
कल वे गुजरेंगे मेरे घर के ऊपर से
नटखट शैतानियाँ करते।
मेरे बच्चे आसमान तक जाना चाहेंगे
तारे तोड़-तोड़ कर
मेरे घर की छत पर
फेंक देना चाहेंगे।
आसमान के नीलेपन को
अपनी पाँखों में भर लेना चाहेंगे।
मेरे बच्चे आसमान पर से
मुझे अँगूठा दिखाएँगे।
और मैं कितना खुश हो जाऊँगा।
कल जब वे बड़े हो जाएँगे
आसमानी वस्त्रों में उतरेंगे
मेरे रोशनदान में से हाथ हिलाएँगे।
उनके पास बादलों के गुदगुदे अनुभव,
परियों के किस्से,
राजकुमारों के सपने होंगे।
वे सुगंध की दिशा में सोचेंगे
और हवाओं पर सवार होकर आएँगे।

वे अपने बचपन का इतना सारा सामान
मेरे घर में सजाना चाहेंगे।
और खिंची दीवारों को देखते ही
उदास हो जाएँगे।
वे हवाओं पर सवार होंगे
और उनका सिर चौखट से टकरा जाएगा।
तब अचानक
बहुत खामोश हो जाएँगे मेरे बच्चे।
मैं न जाने उन्हे किस बात पर झिड़क दूँगा
और उनकी बड़ी बड़ी आँखें
गूँगी हो जाएँगी।
उन्हे आसमान याद आएगा
और अपने सपने अपंग होते हुए दिखेंगे।
धीरे धीरे
मुझ जैसे ही हो जाएँगे बच्चे।
मुझ जैसे ही
दुखी सुखी।
इतने दिनों में
वे कितने पिछड़ चुके होंगे
कितने टूट चुके होंगे
कि जब कभी उन्हे लू या जाड़ा लगेगा
कि जब कभी उनका जूता फट जाएगा
कि जब कभी
वे अपने मकान की छत पर से
नटखट बच्चों को गुजरते देखेंगे
वे आसमान के प्यार में भींग उठेंगे
और मुझे दोष देंगे
मेरे बच्चे
मेरे प्रति घृणा से भर उठेंगे।