भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना ही घर / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:01, 27 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=ताप के ताये हुए दिन / त्रिलोचन }} महल ख...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


महल खड़ा करने की इच्छा है शब्दों का

जिसमें सब रह सकें, रम सकें, लेकिन साँचा

ईंट बनाने का मिला नहीं है, अब्दों का

समय लग गया, केवल काम चलाऊ ढाँचा


किसी तरह तैयार किया है । सबकी बोली-

ठोली, लाग-लपेट, टेक, भाषा, मुहावरा

भाव, आचरण, इंगित, विशेषता फिर भोली

भूली इच्छाएँ, इतिहास विश्व का, बिखरा


हुआ रूप-सौन्दर्य भूमिका, स्वर की धारा

विविध तरंग-भंग भरती लहराती गाती

चिल्लाती इठलाती फिर मनुष्य आवारा

गृही, असभ्य, सभ्य, शहराती या देहाती--


सबके लिए निमंत्रण है अपना जन जानें

और पधारें इसको अपना ही घर मानें ।