परम्परावादिता / शिव कुमार झा 'टिल्लू'
धरती आकाश
जूही पलाश
रागी कास
व्रत उपवास
अश्रु उच्छ्वास
दुर्गन्ध सुवास
देश प्रवास
इन नैसर्गिक चिंताओं से
भरा-परा हमारा साहित्य इतिहास
परम्परावादिता का संत्रास
सीखने हेतु अनिवार्य ..
छद्म काल तक ..
नवकाव्यवाद ! प्रगतिवाद !! नवचेतनावाद !!!
मात्र लेखनी में
कर्म तो वही प्रांजल ..
पिया देशान्तर की
अब क्यों करते चर्चा
प्रगीत को हास्यास्पद बना रही
हमारी वर्त्तमान घिसी - पिटी काव्य
समझो " चांदसी " का पर्चा
अरे भाई ! अब चैट का ज़माना
इन वादिताओं से संज्ञान लेकर
नवल- धवल वाद बनाओ
क्यों अभी भी उलझा है ?
वृथा से बढ़कर सोचना होगा !
कॉर्पोरेट घराना बदल रहल ...
सामाजिक उत्तरदायित्व
जैसे गंभीर बिंदुओ पर सोच रहा
ग्लोबल वार्मिंग की चिंता
वाटर ट्रीटमेंट की सोच !!
हम माँ गंगे की पवित्र धारा में
लाश की राख डाल रहे !!!
एक बार मैंने
दिवाली में एक
विस्फोटक पटाखा जलाया था
गुरूजी आत्मा से दुखी हो गए
हमने तो ऐसी शिक्षा नहीं दी थी ?
अपने अंदर की ज्योति से
अलख को जगमगाओं वत्स !!!!
उस समय मुझे अटपटा लगा था ..
अब बीमारियों ने घेर लिया
दर्द की समझ आ गयी है
मैं भी तो एक दिन
समाज को बीमारी में
धकेल रहा था
परम्परा मत .तोड़ो...
मगर उनको छोडो...
जो समय से काफी पीछे छूट गए...
हां परंपरा से स्नेह है
वांछित भी है !!!
उन्हें विुलप्त होती
परम्परा का नाम देकर
अजायबघर में सजाओ
मौलिक चिड़ियाखाना से निकालकर
हमारे विधान में बाबा साहेब ने
संशोधन के लिए जगह छोड़ा था...
वो जानते थे...
हर चीज की समीक्षा होनी चाहिए
हर कार्य का एक समय के बाद
मूल्यांकन प्रासंगिक है...
नित्य नवीन शोध...
क्या केवल विज्ञान-विधान हेतु ..
जीवन के हर मोड़ पर
नवल दृष्टिकोण की जरुरत...
आर्य साहित्य को नवलवाद दो...
सन्तुलनता का वाद
प्रकृति के रक्षार्थ
जैव-अजैव सन्तुलनता !!!!!
नहीं तो साहित्य क्या कहना
हमारी समस्त जीवन लीला
हमारे गाँव की पाठशाला
दोनों सम्यक हो जाएगी. ..
जहां सब कुछ है ....
मध्यान्ह भोजन है ..
मुफ्त की किताब है ..
गीत है संगीत है...
मतलब पढ़ाई छोड़कर सबकुछ है...
यही शिक्षा का स्तर है ..
हम सीसैट का प्रश्न भी ना समझ पाते...
जो बिहार ..बुद्ध विहार..जैन आचार
नालंदा ..मिथिला... अंग...
भोजभूमि की भूमि अनंग
आज यहाँ शिक्षा का
हो गया अंग-भंग
दूसरे की बात तो नहीं करना ..
क्या हमे नहीं सुधरना.
यदि साहित्य समाज का दर्पण
तो फूटे दर्पण में मत देखो
अपना चेहरा अपना भाव
पीछेे से झाँक रही
अर्धांगिनी के कान्ति का ताव
रीति-काव्य स
प्रेम गीत से
नार-पुआल से
गाँव के चौपाल से
आगे बढ़कर सोचो ..
साहित्य का रूप बदलो
साहित्य नहीं !!
ज्योति के स्रोत से
नवल ज्योति बनाओ
ज्योति का मूल
सर्वकामी है
शाश्वत है
अर्चिस बदलो
आदित्य नहीं
लेखन की मंशा बदलो
साहित्य नहीं !!