भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5

Kavita Kosh से
Devesh.sukhwal (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 08:47, 1 जनवरी 2008 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भगवान सभा को छोड़ चले, करके रण गर्जन घोर चले

सामने कर्ण सकुचाया सा, आ मिला चकित भरमाया सा

हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,

ले चढ़े उसे अपने रथ पर


रथ चला परस्पर बात चली, शम-दम की टेढी घात चली,

शीतल हो हरि ने कहा, 'हाय, अब शेष नही कोई उपाय

हो विवश हमें धनु धरना है,

क्षत्रिय समूह को मरना है


'मैंने कितना कुछ कहा नहीं? विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?

पर, दुर्योधन मतवाला है, कुछ नहीं समझने वाला है

चाहिए उसे बस रण केवल,

सारी धरती की मरण केवल


'हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?

वह भी कौरव को भारी है, मति गई मूढ़ की मरी है

दुर्योधन को बोधूं कैसे?

इस रण को अवरोधूं कैसे?


'सोचो क्या दृश्य विकट होगा, रण में जब काल प्रकट होगा?

बाहर शोणित की तप्त धार, भीतर विधवाओं की पुकार

निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,

बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे