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मैं आजाद हुई हूं / रमणिका गुप्ता

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खिड़कियां खोल दो
शीशे के रंग भी मिटा दो
परदे हटा दो
हवा आने दो
धूप भर जाने दो
दरवाजा खुल जाने दो

मैं आजाद हुई हूं

सूरज का गया है मेरे कमरे में
अंधेरा मेरे पलंग के नीचे छिपते-छिपते
पकड़ा गया है
धक्के लगाकर बाहर कर दिा गया है उसे
धूप से तार-तार हो गया है वह
मेरे बिस्तर की चादर बहुत मुचक गई है
बदल दो इसे
मेरी मुक्ति के स्वागत में
अकेलेपन के अभिनन्दन में

मैं आजाद हुई हूं

गुलाब की लताएं
जो डर से बाहर-बाहर लटकी थीं
खिड़की के छज्जे के ऊपर
उचक-उचक कर खिड़की के भीतर
देखने की कोशिश में हैं
कुछ बदल-सा गया है

सहमे-सहमे हवा के झोंके
बन्द खिड़कियों से टकरा कर लौट जाते थे
अब दबे पांव
कमरे के अन्दर ताक-झांक कर रहे हैं

हां! डरो मत! आओ न!
भीतर चले आओ तुम
अब तुम पर कोई खिड़कियां
बन्द करने वाला नहीं है
अब मैं अपने वश में हूं
किसी और के नहीं
इसलिए रुको मत

मैं आजाद हुई हूं

कई दिनों से घर के बाहर
बच्चों ने आना बन्द कर दिया था
मुझे भी उनकी चिल्लाहट सुने
लगता था युग बीत गया
आज अचानक खिड़कियां खुलीं देख
दरवाजे़ खुले देख
शीशों पर मिटे रंग और परदे हटे देख
वे भौंचक-से फुसफसा रहे हैं
कमरे की दीवार से सटे-सटे

ज़ोर से बोलो न
चिल्लाओ न जी भर कर
नहीं
मैं कोई परदेश से नहीं लौटी हूं
नई नहीं हूं इस घर में
बरसों से रहती हूं
खो गई थी किसी में
आज अपने आपको मिल गई हूं
अपनी आवाज और अपनी बोली भी भूल गई थी
सुनना भी भूल गई थी
सुनाना भी
अब सनने लगी हूं
इसलिए खूब बोलो
दीवारों से सटकर नहीं
खिड़कियों से झांक कर हंसकर चिल्लाओ
कोई तुम्हें रोकने वाला नहीं है

मैं आजाद हुई हूं

अब आजाद हैं सभी
मेरा शयनकक्ष भी
जो एक बन्दी-गृह बन गया था
बन्द हो गया था तहख़ाने की तरह
तिलस्म के जादू के ताले पड़ गए थे जिस पर
आज खुल गया है

मैं आजाद हुई हूं!