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पायताने बैठ कर ६ / शैलजा पाठक

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हाथ के इशारे से उड़ जाती है चिडिय़ा
तालियों की आवाज से उड़ते देखे तमाम कबूतर
झिड़क देने से मासूम ब‘चे
तिरस्कार करने से नाते-रिश्ते
फूंक देने से हथेली पर रखा पंख
पानी उलीचने से जमीं पर पड़ा गर्द

दबा लेने से नहीं दबता मन का दर्द
छुपा लेने से नहीं छुपते ज़ख्म
विदा कहने से नहीं चले जाते तुम
खुश हूं कहने से रिसती हैं आंखें
जाओ यहां से...पर कसकता है कलेजा
भूल गई तुम्हें
कहते ही बेगाना हो जाता है मेरा ही ƒघर

सुबह दोपहर शाम की सीढिय़ां चढ़ता समय
अगर रुक जाए ना
पिछली तारीखों में तुम्हारे पास जाऊं
कुछ बिगड़े समीकरण सुलझाऊं

चले जाओ कहते ही कश्तियां डगमगाती हैं
रुक जाओ की आवाज़ पर
धाराएं सतरंगी रूमाल दिखाती बलखाती हैं
बड़ी दूर चली गई है सपनों वाली नाव
प्रेम के गीत तुम्हारा साथ
पर मैंने नहीं बजाई थी ताली
न किये इशारे न झिड़का था कभी न तिरस्कार
हथेली पर प्रेम के कोमल पंख को किसने फूंका
संगमरमर के शहर में
टकराते पंख की कराहें सुन रही हूं मैं

ये आवाजें जाने का कोई इशारा नहीं समझतीं।