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पहुँची / नज़ीर अकबराबादी
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क्यों न उसकी हो दिलरुबा पहुँची ।
जिसके पहुँचे पै हो किफ़ा पहुँची ।
ग़र पहुँच हो तो हम मलें आँखें ।
ऐसी इसकी है ख़ुशनुमा पहुँची ।
दिल को पहुँचे है रंज क्या-क्या वह ।
अपनी लेता है जब छिपा पहुँची ।
एक छड़ी गुल की भेजकर इसको ।
फ़िक्र थी वह न पहुँची या पहुँची ।
सुबह पूंछी रसीद जब तो ’नज़ीर’ ।
दी हमें शोख ने दिखा पहुँची ।।