{{KKRachna | रचनाकार=
मैं पाता हूँ कभी – कभार 
एक ठहराव अपने भीतर 
कर देना चाहता हूँ कलमबध
अनेक पीड़ाओं को 
और साथ ही 
अकस्मात उभर आये   
अपरिभाषित खालीपन को l
कलम को कागज पर टिका कर
देना चाहता हूँ मूर्त रूप शब्दों का
मगर सियाचिन के ग्लेशियरों की मानिंद 
शून्य हो जाता है जैसे तापमान भीतर का l
शब्द चाहते हैं आकार पाना
मगर जम जाते हैं जैसे 
जहन में ही कहीं
कड़कड़ाती ठण्ड के
कोहरे की तरह l
भीतर का यह जमघट 
बढ़ने लगता है जब कभी
ठोस रूप लेकर  
तो महसूस करता हूँ 
एक भारीपन अंदर तक  
चाहता हूँ कि 
यह गतिशील और प्रवाहमान रहे 
सदैव ही l
ये ठहराव कष्टकारक है
बहना पर्याय है जीवन का 
भीतर की सरिता का बहाव ही 
तय करेगा 
नए रास्ते
नए आयाम 
और नई मंजिलें ...!