भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा नाराज़ होना / भावना मिश्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:31, 27 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भावना मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेटे राघव के लिए

तुम्हारा नाराज़ होना यूँ होता है जैसे
सारे सुन्दर फूलों ने फेर लिया हो चेहरा
कि सुबह की ताज़ी हवा ने
ठान ली हो जिद
बगैर छूए ही गुज़र जाने की
नरम दोपहरी जैसे
उलटे पाँव लौट गई हो
खिड़कियों से.

देखो ना, आज चिड़ियों ने भी नहीं
चखा अपना दाना-पानी
तुम्हारा सुग्गा भी बैठा है ‘
गर्दन में मुँह घुसाए
अलसाई बैठी है गली में गाय
टुकुर टुकुर देखती बासी रोटी..

अब मान भी जाओ
कितने काम रुके हैं
एक तुम्हारी मुसकान पर