भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खण्ड-8 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:02, 25 दिसम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=आलाप...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘‘माँ मेरी कितनी उदार थी भारत माँ थी सचमुच
नारी के सब सरल गुणों की वह थी देवी सचमुच
आठ-आठ सन्तानों की माँ, क्या जीवन-सुख पाती
जलती रही उम्र भर घर के आंगन में संझवाती
और पिता तो भार उठाते ही मजदूर बने थे
गुरु थे, जिनके चरण, देह-कर रज से हुए सने थे
सब की खातिर मरे-जिए, पर आखिर रहे अकेला
मरघट से कुछ अधिक नहीं था, घर भर का वह मेला
कुछ भी पता कहाँ चल पाया, मेरी बहन मरी क्यों
टंगा हुआ है शेष प्रश्न वह अब तक सूली पर ज्यों
क्यों ईश्वर के मृत्युलोक में नारी दीन दिखाए
क्या सचमुच में आई है यह ऐसा भाग्य लिखाए ?
कहीं लपट में जीते जलती, कहीं देवी को अर्पित
कैद कहीं घर की कारा में लेकर जीवन शापित
नारी की यह महासृष्टि जब, नारी क्यों परनश है
पुरुष भले हो किसी लोक का, उसका घोर अयश है
क्यों निर्लिप्त पुरुष है इतना नारी-प्रकृति से हट कर ?
महाशक्ति इस महानिलय में खड़ी दिखाए डट कर !

‘‘उन दिवसों में साथ विभा का कैसा सुखकर-शीतल
जैसे जलते तप्त रेत पर धार सलिल की, कलकल
रोम-रोम को ज्ञात अभी है, मेरे मन का दुख वह
उस अभाव में अमिय सुधा सम मुट्ठी भर का सुख वह
लेकिन निश्चित काल, जहाँ हैं सारे कर्म अनिश्चित
जितना जो कुछ बना, किया ही, किए बिना ही प्रायश्चित
अब वह सब कह कर क्या होगा, दुख को ताज मिलेगा
जिससे रिश्ते आहत होते, उसको राज मिलेगा
कायर-क्लीव कहो तुम मुझको, जो भी जी में आए
मन पर नहीं उतरने देता, जितना जी दहलाए
अब तो चिन्ता है भविष्य की, जो मरुथल की रेत
देवदूत का भेष लिए है, भीतर-भीतर प्रेत ।’’