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यह विलाप नहीं है / अशोक वाजपेयी

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यह विलाप नहीं है

एक नीरव प्रार्थना है

जो किसी देवता को संबोधित नहीं है :

उसमें कोई शब्द भी नहीं है कातर या व्याकुल,

वह एक दिग्हीन चीख़ है

किसी पक्षी की जो दूरदेस से लौटने पर पाता है

कि तिनका-तिनका जोड़कर बनाया उसका घोंसला

आंधी उड़ा ले गई है।


यह प्रार्थना है

जिसमें खारे पानी के क़तरे हैं

अपनी हर बूंद में बिलखते हुए

जिन्हें पता है कि उन्हें

अब अनदेखे और अकेले ही सूख जाना है।

यह सारी नमी को सोखते हुए

सब कुछ को ठूंठ में बदलने पर विलाप है।


यह ध्वस्त मंदिर के पिछवाड़े पड़े मलबे में दबी

भग्न मूर्ति के ऊपर रेंगती दीमकों की क़तार का विन्यास है :

यह चिथड़ों की तरह

तेज़ हवा में फड़फड़ाते

दुख के अवाक होते जाते शब्दों का बीहड़ संगीत है।

संसार में जहां कहीं भी आंसू झर रहा है

सिसकी या चीख़ है

वे सभी वही इस प्रार्थना की इबारत हैं।

यह विलाप नहीं है।