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झूलना / गब्रिऐला मिस्त्राल / अनिल जनविजय

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उठ-गिर रही थीं सागर में लहरें हज़ारों-हज़ार,
चढ़कर जिनपर अनुपम झूला वह रही थी झूल।
तभी सनेही समुद्र की जैसे गूँजी यह पुकार
वह कह रहा था मुझसे — झूल, मेरे बच्चे, झूल।

समय रात का, खेत गेहूँ के ऊपर-नीचे लहराते,
पवन भटकता उन खेतों में करता यह कबूल।
चंचल, नटखट तेज़ हवा में कुछ शब्द बहे आते
कोलाहल करते — झूल, मेरे बच्चे, झूल।

जगत सहस्रों हैं उसके, वह बैठा सिरजन करता,
पर सृष्टि रचना के भी हैं उसके कुछ उसूल।
पहले संसार को रचता, फिर हाथों से उसे ढकता,
पनाह बनाकर कहता — झूल, मेरे बच्चे, झूल।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय