खिले कँवल से, लदे ताल पर, मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी. गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग, हो, ली ! एक बदलीने झुक कर पूछा, "ओ, मधुकर, तू , गुनगुन क्या गाये? "छपक छप - मार कुलाँचे,मछलियाँ, कँवल पत्र मेँ, छिप छिप जायेँ ! "हँसा मधुप, रस का वो लोभी, बोला, " कर दो, छाया,बदली रानी ! मैँ भी छिप जाऊँ, कँवल जाल मेँ, प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !" " रे धूर्त भ्रमर, तू,रस का लोभी -- फूल फूल मँडराता निस दिन, माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ? गरज रहे घन - ना मैँ तेरी सहेली!"
टप, टप, बूँदोँ ने बाग ताल, उपवन पर, तृण पर, बन पर, धरती के कण क़ण पर, अमृत रस बरसाया - निज कोष लुटाया !
अब लो, बरखा आई, हरितमा छाई ! आज कँवल मेँ कैद मकरँद की, सुन लो प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर, हो गई, सगाई !!