अभिलाषाएं सिसक रही हैं मूक हुआ मन का संगीत
कंठ वेदना से रुंध जाता कैसे गाऊँ कोई गीत
द्विविधा से यह मन स्तब्ध है
मन मन भारी शब्द शब्द है
कैसे भला समझ पाओगे
पीड़ा गहरी पर नि:शब्द है
अपनी किंकर्तव्यविमूढ़ता कैसे तुम्हे बताऊँ मीत
पुनर्मिलन पर आज हमारे
दैव ठिठोली करे निराली
खड़े मूक दर्शक से दोनों
पीड़ा नाच रही मतवाली
पूर्ण कामना हुई किंतु यह हार है मेरी या है जीत
मुझसे दूर सुखी थे तुम यदि
कहाँ गई मुस्कान तुम्हारी
जिसे बिखरता देख सदा थी
मेरी गति होती बलिहारी
मेरी अकुलाहट स्वाभाविक, तुम क्यों दिखते आशातीत
मेरे प्रेम समर्पण को तुम
शायद आज समझ पाये हो
इसीलिए इतने कालान्तर
पर मुझसे मिलने आए हो
कैसे किन्तु तुम्हें अपनाऊँ,बँधी किसी की मुझसे प्रीत
कण्ठ वेदना से रुँध जाता,कैसे गाऊँ कोई गीत