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गृहस्थन होती एक लड़की / गोविन्द माथुर

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गृहस्थन होती एक लड़की

गेहूँ चावल दाल

बीनते छानते उसकी

उम्र के कितने दिन

चुरा लिए समय ने

उसे अहसास भी नही हुआ


घर की चार दीवारी में

दिन रात चक्कर काटती

वह अल्हड़ लड़की

भूल गई दुनिया गोल है


उसे आता है

रोटी कों गोलाई देना

तवे पर फिरकनी की तरह घुमाना


पाँच बरस में

उसने सीखा है कम बोलना

ज़्यादा सुनना

मुस्कराना और सहना

उसकी शिक्षा

उपयोगी सिद्ध हो रही है

सब्ज़ी और नमक के अनुपात में

चाय और चीनी के मिश्रण में


वह नंगी अंगुलियों से

उठाती है गर्म दूध का भगौना

तलती है आलू प्याज की पकौड़ि़याँ

मेहमानो के लिए

उसे ख़ुशी होती है

बच्चों के लिए पराँठा सेकते हुए

कपड़ों को धूप देते हुए


उसने कभी नहीं सोचा

दीवारों के पार

कितनी धूप बाकी है अभी