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जिंदगी / बुद्धिनाथ मिश्र

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जन्दगी अभिशाप भी, वरदान भी
जन्दगी दुख में पला अरमान भी
कजर् सांसों का चुकाती जा रही
जन्दगी है मौत पर अहसान भी
वे जिन्हें सर पर उठाया वक्त ने
भावना की अनसुनी आवाज थे
बादलों में घर बसाने के लिए
चंद तिनके ले उडे परवाज थे

दब गये इतिहास के पन्नों तले
तितलियों के पंख, नन्ही जान भी

कौन करता याद अब उस दौर को
जब गरीबी भी कटी आराम से
गर्दिशों की मार को सहते हुए
लोग रिश्ता जोड बैठे राम से

राजसुख से प्रिय जिन्हें वनवास था
किस तरह के थे यहाँ इन्सान भी।

आज सब कुछ है मगर हासिल नहीं
हर थकन के बाद मीठी नींद अब
हर कदम पर बोलियों की बेडयाँ
जन्दगी घुडदौड की मानिन्द अब

आँख में आँसू नहीं काजल नहीं
होठ पर दिखती न वह मुस्कान भी।