Last modified on 30 अप्रैल 2018, at 03:17

लफ्ज़ की कश्तियाँ / साहिल परमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:17, 30 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साहिल परमार |अनुवादक=साहिल परमार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दीप जलते रहे, हम पिघलते रहे
ख़ैर, आँसुओं की महफिल तो चलती रही

खास बातें तो ऐसी नहीं थीं मगर
वो ही बातें ज़मीं में पनपती रहीं

मेरी माँ ने मुझे पाला था उस तरह
याद उनकी मेरे दिल में पलती रही

सर में तूफ़ान था दिल में उफ़ान था
फिर वो ही आग क्यूँ ठण्ड बनती रही

मेरे पैरों ने चलना मना कर दिया
मंज़िलें मेरी नब्ज़ों में खलती रहीं

रोते - रोते मेरे हाथ भर आए और
लफ्ज़ की कश्तियाँ फिर उछलती रहीं

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार