भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँसू जो पोंछे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:01, 19 जून 2018 का अवतरण ('घने अँधेरे फिर राहें कँटीली, साथी न कोई हैं पलकें भी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घने अँधेरे फिर राहें कँटीली, साथी न कोई हैं पलकें भी गीली । चलते रहे थके पाँव घायल पाएँगे कैसे लापता गाँव हम, की थी दुआएँ- पर न जाने कैसे शूल वे बनी , की केसर की खेती अभिशप्त हो वो बनी नागफनी। कैसे अपने? दुआओं से आहत, शाप यदि दो, करते हैं स्वागत । आँसू जो पोंछे वो लगता विषैला भाया सदा ही इन्हें मन का मैला । आओ समेटे वो शुभकामनाएँ नहीं लौटना- कहने को घर हैं ये हिंसक गुफाएँ । -0- </poem>