गत्ते की गांठ / राहुल कुमार 'देवव्रत'
संवेदना,
मन की सहज व्यथा है।
"आह से उपजा गान" है।
यह न पैदा की जा सकती,
न मिटाई जा सकती है।
हाँ,
कभी-कभी परिस्थितियाँ,
किंकर्तव्यविमूढ़ बना जाती हैं।
पीछे की स्मृति,
आगे की चिंता,
कोष और सैन्यबल के व़गैर,
घोषित राजा को क्षण-क्षण,
दायित्वबोध करानेवाली
लोकतांत्रिक प्रजा।
तुर्रा ये कि
त्रुटियों के हिसाब लेखन हेतु,
चित्रगुप्तों की बारात।
अघोषित और दीर्घकालीन संघर्ष
व्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने देता।
पत्थर की चोट से घिसा,
जो व्यक्ति, व्यक्ति ही न रहा,
उसके नाम के पीछे,
"संवेदनशील" विशेषण की लालसा क्यों?
तभी तो,
जब तथ्यों से परे।
वाहियात मानसिकता का लबादा पहन।
भेंड़चाल में जबरन शामिल करने को आतुर।
खींसे निपोरता बहेलिया
आडम्बर की ओट से,
विषसिक्त बाणों के प्रहार
कोमल गात पर करते हैं।
रक्तश्राव और उससे होनेवाली
असह्य पीड़ा की चिंता किए बगैर,
सुई की नोंक चुभो चुभोकर,
नैतिकता से हँसकर बात करते
चेहरे के होंठ सिलते हैं।
ऐसे क्रांतिक क्षणों में अक्सर,
विद्रूपता अपनी सफलता पर मुसकाती है।
और संवेदनशीलता!
किसी अज्ञात पते पर,
अकर्मण्य भाव से क्रमशः,
निस्तेज होती चली जाती है।