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अशान्त मन ! / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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अशान्त मन !
बहुत हुआ खेला
बीती पल में
मधुरिम चन्द्रिका
तृषित बेला
रहे प्यासे अधर
लौटा सागर
दे खाली गागर,
चुप न बैठो
कुछ तो है करना
खाली गागर
मिलकर भरना
कुछ हों आँसू
कुछ मधु मुस्कानें
कुछ व्यथाएँ
कुछ हों गीत नए
गाए न गए
जो कभी द्वार पर;
कर दो अब
वह प्यार मुखर
जिसको पाने
अधर भी तरसें
नैना नित बरसें।